Manu Smriti
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विद्याधनं तु यद्यस्य तत्तस्यैव धनं भवेत् ।मैत्र्यं औद्वाहिकं चैव माधुपर्किकं एव च ।।9/206

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो धन विद्या, मित्रता और विवाह आदि से प्राप्त हो वह जिस को मिले उसका है, उसमें किसी भाई का भाग लेने वाले का भाग नहीं होता, जो संचित करे वही उसका स्वामी है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
विद्या के कारण प्राप्त, मित्र से प्राप्त, विवाह में प्राप्त और पूज्यता के कारण आदर सत्कार में प्राप्त (यत् यस्य धनम्) जो जिसका धन है वह उसी का ही होता है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु यह ध्यान रहे कि विद्या, मैत्री और विवाह से जिसने जो धन संपादित किया हो, और इसी प्रकार मधुपर्क-काल में जिसे जो धन प्राप्त हो, वह उसी का होता है। विभाग करते समय उस का बंटवारा नहीं होता।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
परन्तु जो धन जिस भाई ने अपनी विद्या से, अपने मित्र से, अपने विवाह में, मधुपर्क में पाया हो, वह उसी का है। इसका बाँट नहीं होना चाहिये।
 
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