Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
201वें श्लोक में वर्णित पुरुषों में से प्रत्येक का भाग लेने वाला भोजन व वस्त्र जीवन पर्यन्त देवे यदि न देवे तो सर्वथा पापी होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
किन्तु (मनीषिणा) बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इन सबको यथाशक्ति न्यायानुसार भोजन, वस्त्र आदि (दातुम्) देता रहे इस प्रकार न देने वाला ’पतित’ माना जायेगा ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
नपुंसक, पतित, जन्मान्ध, जन्मबधिर, पागल, जड़वत्, महामूर्ख, गूंगे, और इसी प्रकार जो लूले-लंगड़े आदि निरिन्द्रिय हों, उन्हें पैत्रिक धन का अधिकार नहीं। परन्तु बुद्धिमान् दायाधिकारी को चाहिए कि वह इन सभी नपुंसक आदि असमर्थों को यथाशक्ति भरपेट न्यायोचित भोजनाच्छादन देता रहे। यदि वह ऐसा नहीं करता, तो वह पतित होता है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
नपुंसक, पतित जन्म-अन्ध, बधिर, उन्मत्त, जड़, मूक और निरिन्द्रिय जायदाद के वारिस नहीं होने चाहिये। परन्तु इन सब को भोजन, वस्त्र आवश्यकतानुसार बुद्धिमान वारिस की ओर से मिलना चाहिये। यदि न दे, तो पतित होवे।