Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(भगवन्) हे भगवन्! आप (सर्ववर्णानाम्) सब वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र,( च) और (अन्तरप्रभवाणाम्) सभी वर्णों के अन्दर होने वाले अर्थात् आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के (वर्णानां अन्तरे प्रभवः )- उत्पत्ति; , स्थितिः (येषां ते अन्तरप्रभवाः - आश्रमाः धर्मान्) धर्म - कत्र्तव्यों को यथावत् ठीक - ठीक रूप से( अनुपूर्वशः) और क्रमानुसार अर्थात् वर्णों को ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के क्रम से तथा आश्रमों को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के क्रम से( नः) हमें (वक्तुम्) बतलाने में (अर्हसि) समर्थ हो ।
टिप्पणी :
मनुस्मृति की भूमिका में -
कूल्लूकभट्टादि टीकाकारों द्वारा अन्यथा व्याख्यात प्रक्षेप - रहित श्लोक
१. (१।२) श्लोक के ‘अन्तरप्रभवाणाम्’ पद की व्याख्या मेधातिथि, कुल्लूकभट्टादि टीकाकारों ने ‘संकीर्णजातियाँ या वर्णसंकर’ किया है । यह उनकी व्याख्या सर्वथा असंगत, मनु के आशय से विरूद्ध तथा अविवेकपूर्ण है । इसका अर्थ ‘आश्रम’ होना चाहिये । क्यों कि मनु ने वर्णों तथा आश्रमों के धर्मों का ही मनुस्मृति में वर्णन किया है और जो वर्णों से पतित हो गये हैं, चाहे वे वर्णसंकर हों अथवा संकीर्णजातियाँ, उनके अशास्त्रीय कर्मों को धर्म शब्द से कहा ही नहीं जा सकता । ‘धर्मो धारयते प्रजाः’ ‘धारणाद् धर्म इत्याहुः’ इत्यादि वचनों के अनुसार प्रजा को धारण - व्यवस्थित रखने वाले श्रेष्ठ गुणों को ही धर्म शब्द से ग्रहण किया जाता है । अतः इस श्लोक में धर्म शब्द के साथ वर्ण - संकरादि अर्थ की क्या संगति हो सकती है ? और महर्षियों को उनके धर्म - विरूद्ध कार्यों को पूछने का क्या प्रयोजन हो सकता है ? और श्लोक के ‘अन्तरप्रभव’ शब्द से ‘आश्रम’ धर्म की अभिव्यक्ति भी हो रही है । ‘‘अन्तरे - वर्णानां मध्ये प्रभव उत्पत्तिर्येषां ते अन्तरप्रभवा आश्रमाः ।’’ क्यों कि ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों की उत्पत्ति वर्णों के मध्य ही है, अतः इन्हें ‘अन्तरप्रभव’ कहते हैं । और यदि यह अर्थ किसी को स्वीकार करने में कुछ संकोच होता है तो उसे विचार करना चाहिये कि महर्षियों के प्रश्नों के अनुरूप ही तो मनु जी को उत्तर देना चाहिये था, फिर आश्रमों के कर्मों (धर्मों) का वर्णन मनु जी ने क्यों किया ? अतः मनु के वण्र्यविषय के अनुसार भी ‘आश्रम’ अर्थ ही सुसंगत होता है । इसकी पुष्टि में कुछ और तथ्य देखिये -
(क) ‘अन्तरप्रभव’ शब्द का दूसरा पर्यायवाची शब्द मनु जी ने ‘सान्तरालं’ प्रयुक्त किया है । (१।१३७/२ ।१८) श्लोक में (१।२) श्लोक की भांति कहा है - ‘वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।’ सदाचार की परिभाषा वर्णों और सान्तरालों - आश्रमों के आचार को ही माना है । यदि ‘सान्तराल’ शब्द का अर्थ मनु जी को वर्णसंकरादि अभीष्ट होता तो उनके आचार को सदाचार कभी नहीं कहते । क्यों कि वर्णसंकरादि के आचार को दशम अध्याय में निन्दनीय कहा गया है , जिसका यहाँ पृथक् वर्णन पाठक पढ़ सकते हैं । अतः ‘सान्तराल’ शब्द की भांति ‘अन्तरप्रभव’ का अर्थ भी ‘आश्रम’ ही करना चाहिये । यद्यपि टीकाकारों ने (२।१८) श्लोक में भी वर्णसंकरादि असंगत अर्थ किया है, किन्तु उसकी वहाँ लेशमात्र भी संगति नह होने से टीकाकारों की भ्रान्त - व्याख्या ही कहनी चाहिये । क्यों कि मनु जी ने जिस ब्रह्मावत्र्त देश में रहने वाले ब्राह्मणों से विश्व को चरित्र की शिक्षा लेने का आदेश दिया है, वह उत्तम सदाचार वर्णसंकरों का कदापि नहीं हो सकता । क्यों कि मनु जी ने वर्णसंकरों के आचरण को निन्दनीय बताया है । उसके कुछ प्रमाण देखिये -
‘मातृदोषविगर्हितान्’ (१०।७) माता के दोष से निन्दित ।
‘क्रू राचारविहारवान्’ (१०।९) क्रूर आचार - व्यवहार वाले ।
‘अधमो नृणाम्’ (१०।१२) मनुष्यों में नीच ।
‘अव्रतांस्तु यान्’ (१०।२०) व्रत - हीन ।
‘पापात्मा भूर्जकण्टकः’ (१०।२१) पापी आत्मा वाले ।
इसी प्रकार संकीर्ण जातियों को ‘अपसद - नीच’ ‘अपध्वंसज’ पतितोत्पन्न आदि शब्दों से कहा गया है । अतः इनका आचरण न तो धर्म कहा जा सकता और नहीं सदाचार ।
(ख) मनुस्मृति के अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि इसमें वर्णों के धर्मों के साथ - साथ आश्रमों के धर्मों का ही कथन है, वर्णसंकरों का नहीं । द्वितीयाध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम का, तृतीयाध्याय से पंच्चमाध्याय तक गृहस्थाश्रम का, षष्ठाध्याय में वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का वर्णन है । साथ - साथ वर्णधर्मों का वर्णन भी किया है । अतः ‘अन्तर - प्रभव’ या ‘सान्तराल’ आश्रम - धर्म ही हैं ।
(ग) मनुस्मृति में वर्णों के साथ - साथ आश्रमों के वर्णन की ही प्रवृत्ति दिखाई देती है । जैसे - ‘चातुर्वण्र्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्’ (१२।९७) । ‘वर्णानामाश्रमाणां च राजा सृष्टो ऽभिरक्षिता (७।३५) यहां राजा को वर्णों तथा आश्रमों का रक्षक कहा है । वर्णों के साथ वर्णसंकरों का उल्लेख नहीं है । जैसे - सुख - दुःख, लाभ - हानि, जय - पराजयादि एक दूसरे से विपरीत हैं, वैसे ही वर्ण तथा वर्णसंकर भी हैं । एक से राष्ट्र की रक्षा या व्यवस्था होती है, तो दूसरे से राष्ट्र की हानि । एक से मानव उन्नत होकर सुखी होता है, तो दूसरे से मानव का पतन तथा दुःखवृद्धि । अतः परस्पर विरोधियों को पूछने का न तो ऋषियों का अभिप्राय ही था और नहीं मनु को ही अभिप्रेत है । और जैसे धर्म को जानने से अधर्म का, शुभकर्मों को जानने से अशुभकर्मों का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है, वैसे ही वर्ण से वर्णसंकर का ग्रहण हो जाता , फिर पृथक् से पूछने की आवश्यकता भी क्या थी ?’
(घ) वर्णसंकरों के विषय में मनुस्मृति की अन्तःसाक्षी देखिये -
मनु० १०।२४. अर्थात् वर्णों के व्यभिचार से, अगम्या स्त्री के साथ गमन करने से और अपने कत्र्तव्य - कर्मों के त्यागपूर्वक उत्पन्न सन्तान ‘वर्णसंकर’ कहलाती हैं ।
मनु० १०।२५. और संकीर्ण योनियाँ वे होती हैं - जो अवैध रूप से मिश्रित वर्णों से उत्पन्न होती हैं, उनकी उत्पत्ति प्रतिलोम - अनुलोम तथा पारस्परिक संबंध से होती है, उनको सम्पूर्णता से कहता हूँ ।
इन वर्णसंकरों और संकीर्ण - जातियों के होने से राष्ट्र की क्या दशा हो जाती है -
मनु० १।६१. अर्थात् जिस राष्ट्र में वर्ण - कर्मों से पतित होकर ये वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं, वह राष्ट्र राष्ट्र - निवासियों के साथ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
मनु० १०।४५ अर्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन की क्रियाओं का लोपादि करने से जो बहिष्कृत जातियाँ - वर्णसंकर या संकीर्ण जातियाँ हो जाती हैं, वे चाहे म्लेच्छभाषा बोलती हो या आर्यभाषा, सब दस्यु कहलाती हैं ।
मनु० १०।५३ अर्थ - धर्मभीरू व्यक्ति को चाहिये कि इन वर्णसंकर या संकीर्णजातियों से संपर्क करने की इच्छा भी न करे । अतः निन्दनीय या गर्हित कर्म वाले एवं राष्ट्र - नाशक वर्णसंकरों के कर्मों को धर्म मानने एवं उनका वर्णन पूछने का ऋषियों का कदापि आशय नहीं था । इसलिये इस पद की वर्णसंकर - परक व्याख्या भ्रान्तिवश असंगत की है । कहीं - कहीं तो ‘संकरप्रभवाणाम्’ ही पाठ - भेद भ्रान्तिवश किया गया मिलता है । जो भ्रान्तव्याख्याओं के कारण ही पाठ - भेद किया गया है ।
२. (१।३) यह दुर्भाग्य की बात रही है कि मनुस्मृति जैसे प्रामाणिक धर्मशास्त्र के कुल्लूकभट्टादि समस्त टीकाकारों ने १।३ श्लोकों के ‘अस्य सर्वस्य’ पदों का अर्थ विधानस्य - वेद के साथ मिलाकर किया है, किन्तु यह अर्थ असंगत - अपूर्ण तथा अविवेकपूर्ण है । इसी अर्थ के कारण यह भ्रान्ति उत्पन्न हुई कि ऋषियों का प्रश्न वेद - विषयक था, तो उत्तर सृष्टि - उत्पत्ति विषयक क्यों ? इन प्रश्न - उत्तरों की संगति टीकाकार नहीं लगा सके हैं । अतः इसका ‘अस्य - सर्वस्य - इस प्रत्यक्ष विद्यमान जगत् का’ ही अर्थ करना उचित है । ‘इदम्’ सर्वनाम इस अर्थ को घोषित कर रहा है । इस सर्वनाम से प्रत्यक्ष वस्तु का ही निर्देश किया जाता है । ‘सर्व और विश्व’ शब्द पर्यायवाची हैं । जब ये सबके वाचक हैं तब ही इनका नाम सर्वनाम है, जगदादि अर्थों में नहीं । अतः ‘सर्वस्य’ का अर्थ ‘जगतः’ करना चाहिये । मनु जी ने इस बात का स्पष्टीकरण उत्तर में कहे निम्न श्लोक से दिया है -
मनु० १।५. इस श्लोक में स्पष्ट रूप से यद्यपि ‘जगत्’ शब्द नहीं पठित है, और नहीं ऊपर से ही अनुवृत्ति आ रही है, पुनरपि सभी टीकाकारों ने इस श्लोक की जगत् - परक व्याख्या की है, इसी प्रकार इस (१।३) श्लोक में भी ‘जगत्’ अर्थ करने में कैसे असंगति हो सकती है ? ‘अस्य’ और ‘इदम्’ दोनों ही एक शब्द के रूप हैं । यदि ‘इदम्’ शब्द से जगत् का परामर्श हो सकता है, तो ‘अस्य’ से क्यों नहीं ?
और इस श्लोक के ‘कार्यतत्त्चसर्थवित्’ शब्द से भी इस अर्थ की संगति हो रही है । यह पद समस्त है । यहाँ मनु जी को कार्यतत्त्वों तथा अर्थों को जानने वाला कहा है । इसकी संगति श्लोक में इस तरह लगती है कि अस्य सर्वस्य - इस जगत् के कार्यतत्त्व - कारण से बने स्थूल पदार्थों के तत्त्व - सूक्ष्म - कारण प्रकृति महत्तत्त्वादि को आप जानते हैं और सनातन परमात्मा का जो विधान - वेद है, उसके गहन अर्थों को भी आप जानते हैं । शेष ‘अचिन्त्यस्य अप्रमेयस्य’ पद दोनों के साथ लग सकते हैं । वेद - परक तो इन पदों की सबने व्याख्या मानी ही है और जगत् - परक स्वयं मनु जी ने (१।५) में ‘अतक्र्यम् अविज्ञेयम्’ कहकर कर दी है । और जगत् - परक व्याख्या में वेद का भी प्रमाण है -
अर्थात् यह सब जगत् सृष्टि से पहिले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य ......................................................................था ।
और जैसे वेद जगत् का विधान है और वेद को मनुस्मृति में -
मनु० १२।९४ चक्षुः - ‘चक्षिड् व्यक्तायां वाचि अयं दर्शनेऽपि’ इस धात्वर्थ के अनुसार वेद समस्त विधान को स्पष्ट तथा निभ्र्रान्त रूप से बताता है, वैसे ‘जगत्’ भी बताता है । जगत् तथा वेद क्रमशः परमेश्वर की रचना तथा ज्ञान हैं, अतः वेदान्त - दर्शन के अनुसार ‘तत्तु समन्वयात्’ वेद और जगत् में समन्वय है । ‘विष्णोः कर्माणि पश्यत’ इत्यादि वेद - प्रमाणों से स्पष्ट है कि परमात्मा की रचना को देखकर परमेश्वर का ज्ञान होता है, अतः यह जगत् भी चक्षु - परमात्मा की व्याख्या व सिद्धि करता है ।
और इस श्लोक के कार्यतत्त्वार्थवित् पद को भी कुल्लूकभट्टादि समझने में सर्वथा ही असमर्थ रहे हैं । उन्होंने इस पद के ‘कार्य’ शब्द का ‘अग्निष्टोमादि यज्ञ’ और ‘तत्त्व’ शब्द का ‘ब्रह्म’ अर्थ किया है । यह उनका अर्थ असंगत तथा त्रुटिपूर्ण है । उनकी व्याख्या में निम्नदोष हैं -
(क) महर्षियों ने जिस विषय का प्रश्न किया था, उसी को जानने वाला मनु जी को कहना उचित है । प्रश्न तो किया गया है वर्ण व आश्रमों के धर्मों का और मनु जी के लिये विशेषण दिया जाये यज्ञ तथा ब्रह्म को जानने का, इनमें परस्पर कोई संगति नहीं है । और कार्यतत्त्व तथा वेदार्थवित् कहना इस लिये संगत है कि वेद ही सब धर्मों का मूल है । ‘धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ आदि कहकर मनु जी ने इसे स्पष्ट किया है । और ‘अस्य सर्वस्य कार्यतत्त्वार्थवित्’ कहकर ऋषियों ने सृष्टि - उत्पत्ति की भी परोक्षरूप में जिज्ञासा प्रकट की और मनु जी ने उसका उत्तर दिया है ।
(ख) ‘कार्य’ शब्द का यज्ञ तथा ‘तत्त्व’ शब्द का ब्रह्म अर्थ है, इसमें जहाँ प्रकरण से विरोध है, वहाँ इस अर्थ में कोई प्रमाण भी नहीं है । कारण से जो बने उसे कार्य कहते हैं, अथवा करणीय कर्मों को कार्य कहते हैं । यद्यपि ‘यज्ञ’ भी एक कत्र्तव्य कर्म है, किन्तु यज्ञ ही कत्र्तव्य नहीं है और नहीं इस शास्त्र में यज्ञों का ही वर्णन माना जा सकता है । यज्ञ तो एक अंग हैं, अंगी नहीं ।
(ग) और श्लोक - पठित ‘कार्यतत्त्व’ शब्द का पृथक् - पृथक् करके अर्थ भी विद्वदभिनन्दनीय नहीं हो सकता । क्यों कि ‘तत्त्व’ शब्द सामेक्ष है , जो ‘कार्य’ शब्द के बिना पूर्ण - अर्थ का बोधक नहीं हो सकता । और ‘कार्यतत्त्वार्थवित्’ शब्द के ‘अर्थ’ शब्द तो इनकी व्याख्या में निरर्थक ही हो जाता है ।
(घ) मनुस्मृति के इन कुल्लूकभट्टादि व्याख्या करने वालों पर पौराणिक भाष्यकार सायणाचार्य की मान्यता का यह प्रभाव था कि वेद यज्ञ के लिये हैं । वेदों में यज्ञों का ही प्रतिपादन है । इसलिये उन्होंने क्लिष्ट - कल्पना करके ‘कार्य’ शब्द का यज्ञ अर्थ कर दिया है । वास्तव में यह एक मिथ्या और मनुस्मृति के विरूद्ध कल्पना मात्र ही है । वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है । इसमें कतिपय मनुस्मृति के ही प्रमाण देखिये -
(१।२४) श्लोक में लिखा है - वेदों से ही समस्त पदार्थों का नाम रखे गये और सब मनुष्यों के कर्मों तथा पृथक् व्यवस्थाओं का निर्धारण किया गया । (१२।९७) में चारों वर्णों, आश्रमों एवं तीनों कालों का ज्ञान वेदों से माना है । (१२।९८) शब्द, स्पशट आदि सूक्ष्म शक्तियों की वैज्ञानिक सिद्धि वेदों के द्वारा मानी है । (१२।९९) में जगत् के समस्त व्यवहारों का सर्वोपरि साधक वेद को माना है । (७।४३,१२,१००) में राजनीति की शिक्षा देने वाला, (१२।१०९-११३) में धर्माधर्म का ज्ञान देने वाला, (१।२४) और (१।२१) में जगत् के श्रेष्ठ व्यवहारों का साधक वेद को माना है । (१२।९४) में पितर, देव तथा मनुष्यों को समस्त ज्ञान - विज्ञान आदि दर्शाने के कारण वेद को ‘चक्षुः’ शब्द से कहा गया है ।
(ड) और मनुस्मृति के इन टीकाकारों की व्याख्या प्रसंग के विरूद्ध भी है । ऋषियों ने मनु जी के पास आकर वर्णों और आश्रमों के धर्म के बारे में प्रश्न किया था । उन्हें धर्म के मूलाकरण वेदार्थवेत्ता कहना तो संगत है, यज्ञादि का वेत्ता कहना प्रसंगविरूद्ध है । प्रसंगानुकूल ही विशेषणों से विशेषित करना उचित है । और जो वेदार्थवेत्ता है, वही धर्मोपदेश करने में समर्थ हो सकता है, यह स्वयं मनु जी ने १२वें अध्याय के १०८ - ११४ श्लोंकों में कहा है । इस प्रकार कुल्लूकभट्टादि का किया अर्थ सर्वथा असंगत, युक्तिविरूद्ध, अव्यावहारिक तथा मनु जी के आशय से विरूद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता ।
३. मनुस्मृति के इन (१-४) प्रथम चार श्लोकों के विषय में भी कुछ टीकाकारों की यह भ्रान्त धारणा है कि मनुस्मृति का प्रारम्भ पांचवें श्लोक से होता है, ये प्रथम चार श्लोक भृगु अथवा किसी शिष्य के बनाये हुए हैं । यद्यपि १-४ श्लोक मनुप्रोक्त श्लोकों की भांति मौलिक नहीं हैं, तथापि इनकी शैली, घटना और प्रश्नों के आधार पर इन्हें मौलिक मानने में संकोच नहीं करना चाहिये । क्यों कि मनु जी के किसी शिष्य ने तत्कालीन घटना तथा भावों के अनुरूप ही भूमिका के रूप में इन श्लोकों का संकलन किया है । घटना तथा प्रश्न दोनों ही यथार्थता को लिये हुए हैं । जिन शिष्यों ने सम्पूर्ण प्रवचनरूप मनुस्मृति का संकलन किया है, उन्होंने ही इन भूमिका के श्लोकों का संकलन किया है । अतः दूसरे मौलिक श्लोकों की भांति इन्हें भी संगत मानना उचित है । और इनके बिना प्रकरण की संगति भी नहीं लग पाती । और कुछ टीकाकारों ने इन चार श्लोकों की शैली के आधार पर मध्य - मध्य में किये प्रक्षिप्त - श्लोकों को भी, (जैसे - मनुरब्रवीत् ।। (८।३३९) मनुना परिकीर्तितः ।। (१।१२६) उक्तवान् मनुः ।। (१।११८) इत्यादि को मौलिक मानने का प्रयत्न किया है । किन्तु उनकी यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । क्यों कि मनुस्मृति एक प्रवचन किया हुआ ग्रन्थ है । इसका संकलन मात्र ही शिष्यों ने किया है, किन्तु मनु के भावों को लेकर श्लोकों को नहीं बनाया गया है । संकलन में संकलयिता अपनी ओर से कुछ नहीं लिख सकता, किन्तु भावानुरूप भाषा से श्लोक बनाने में स्वंय भी कुछ लिख सकता है । यह मनुस्मृति की अन्तः साक्षी से स्पष्ट हो जाता कि मनु द्वारा प्रवचन किये श्लोकों के अनुरूप ही संकलन किया गया है । यह बात ‘श्रूयताम्’ ‘निबोधत’ आदि क्रियाओं से परिपुष्ट हो जाती है । यदि यह भावानुरूप बाद की रचना होती, तो ऐसी क्रियाओं का प्रयोग कैसे हो सकता है ? अतः मनु आदि शब्दों को लेकर अर्वाचीन श्लोकों को मौलिक सिद्ध नहीं किया जा सकता ।)