Manu Smriti
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एतद्विधानं विज्ञेयं विभागस्यैकयोनिषु ।बह्वीषु चैकजातानां नानास्त्रीषु निबोधत ।।9/148
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि कोई पुरुष अपने सदृश वर्ण की कई स्त्रियों से विवाह करे तो अंश विभाग की विधि उपरोक्त कथानुसार ही जाने। यदि भिन्न-भिन्न वर्णों की स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न हो तो पैतृक धन का विभाग निम्नलिखित रीति पर करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सभी (9/148-191) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- (क) यहाँ पूर्वापर श्लोकों में दायभाग के विभाजन का प्रसंग चल रहा है । इनके बीच में (158-184) श्लोकों में पुत्रों के भेद बतलाये हैं, ये यदि दाय-भाग के वितरण के प्रारम्भ में कहे जाते तो प्रासंगिक कहा जा सकता था । परन्तु दायभाग के प्रसंग के बीच में ये उस प्रसंग को भंग करने कारण प्रक्षिप्त है । (ख) और 185-189 श्लोंको मे दायभाग के कुछ विकल्प दिये है । वे दाय-भाग के सामान्य कथन के बाद दिये जाते तो प्रसंगानुकूल कहे जा सकते थे । दाय-भाग की समाप्ति से पूर्व ही इन वैकल्पिक व्यवस्थाओं का विधान संगत नही है । 2. विषय-विरोध- मनु के विषय-निर्देशक (9/103, 120) श्लोकों के अनुसार प्रस्तुत विषय दाय-भाग के विभाजन का है । किन्तु 158-184 श्लोकों में बारह प्रकार के पुत्रों का वर्णन और 186 श्लोक में पिण्डदान का कथन विषय-बाह्य होने से प्रक्षिप्त है । 3. पुनरुक्तिदोष- 190 श्लोक में जो सन्तानरहित भार्या= स्त्री को निय़ोग का अधिकार और मृतक पति के धन पर नियोगज पुत्र का अधिकार माना है, ये सभी बाते 9/120, 145, 146 श्लोकों में कही है, अतः पुनरुक्त के कारण यह श्लोक मनुप्रोक्त नही है । 4. अन्तर्विरोध- (क) 148-157 श्लोकों मे अनेक वर्णों की अनेक पत्नियों से उत्पन्न पुत्रों के दायभाग का वर्णन है । यह बहुपत्नीवाद की मान्यता मनुसम्मत नही है । 5/167-168 और 3/4-5 श्लोकों के अनुसार मनु ने एक स्त्री से और वह भई सवर्णा स्त्री से विवाह का विधान किया है । मनु ने इन श्लोकों में सर्वत्र एकवचन का प्रयोग करके एक ही पत्नी की मान्यता को स्पष्ट किया है । (ख) और 158-184 और 190-191 श्लोको मे वर्णित दाय-भाग जन्मना वर्णव्यवस्था का पोषक होने से मनुसम्मत नही है । और इन श्लोकों में कुछ निम्न पुत्रों को दायभाग का अधिकारी नही माना है । यह भी मनु से विरुद्ध है । मनु बीज को प्रधान मानते है (9/33-56) । बीज की प्रधानता होने पर उच्च अथवा निमन स्तर के पुत्रों का कथन करना अनुचित है । मनु कर्मणा वर्णव्यवस्था के पोषक है । 1/92-107 श्लोकों की समीक्षा इस विषय़ में द्रष्टव्य है । और कर्मानुसार वर्णव्यवस्था में सभी पुत्र समान होते है । (ग) 185 वें श्लोक का विधान 211-212 श्लोकों से विरुद्ध है । अर्थात् पिता के धन का अधिकारी पुत्रों के अभाव मे 185 श्लोक में भाइयों को ही माना है । परन्तु 211-212 में भाई-बहन बांट लेवें अथवा कुटुम्ब के भाई-बहन भी अधिकारी कहे है । अतः 185 वें श्लोक का विधान विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है । (घ) 187-189 श्लोकों में कहा है कि कुटुम्ब में कोई भी जीवित न हो तो ब्राह्मण सम्पत्ति के अधिकारी है । यह कथन मनु के (8/30) विरुद्ध है । क्योंकि (8/30) में ऐसे धऩ का अधिकारी राजा को माना है । अतः यह परस्परविरोधी कथन मनुप्रोक्त नही हो सकता । इसी प्रकार 188 का कथन 189 श्लोक से विरुदध है। 5. शैली-विरोध- (क) 158 श्लोक के ’आह स्वांयभुवः मनुः’ वाक्य से स्पष्ट है कि यह श्लोक मनु से भिन्न व्यक्ति द्वारा रचित है । प्रक्षेपक ने अपने श्लोकों को मनु-सम्मत अथवा प्रामाणिक बनाने के लिये मनु का नाम श्लोक में रखा है । मनु इस प्रकार अथवा नाम लेकर कहीं प्रवचन नही करते । इसी प्रकार 182 और 183 श्लोक में मनु का नाम लिया गया है और 159 से 184 तक श्लोकों का आधार-श्लोक यही है, अतः इसके प्रक्षिप्त होने से सभी श्लोक प्रक्षिप्त है । (ख) 188-189 श्लोकों की शैली पक्षपातपूर्ण होने से मनु की नही है । यदि मृतक के धन का अधिकारी ब्राह्मण है तो सभी वर्णों के लिये यह विधान होना चाहिये । किन्तु (189) में केवल ब्राह्मणो को ही छूट देना पक्षपातपूर्ण है । 6. वेद-विरुद्ध- मनु ने वेद को धर्मशास्त्र में परम प्रमाण माना है । अतः मनु वेद से विरुद्ध नही लिख सकते । परन्तु 186 में पिता आदि को जलदान और पिण्डदान की व्यवस्था की व्यवस्था वेद-विरुद्ध है । वेद में सभी प्रकार के कर्त्तव्यों की समाप्ति शरीर के भस्म होने तक मानी है । अतः मरणोत्तर पिण्ड-दानादि करना वेद-विरुद्ध मान्यता है ।
 
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