Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ऊँ० भूर्भूवःस्वः इसको और गायत्री के तीनों चरणों को दोनों समय की संध्या में वेद पढ़ने वाला ब्राह्मण जप ले तो सब धर्म के फल को प्राप्त कर लेता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
एतत् अक्षरम् इस ओम् अक्षर को और व्याहृतिपूर्विकाम् ‘भूः भुवः स्वः’ इन व्याहृतियों सहित एताम् इस गायत्री ऋचा मन्त्र को ‘‘ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।’’ इस मन्त्र को वेदवित् विप्रः वेदपाठी द्विज सन्ध्ययोः जपन् दोनों संध्याओं - प्रातः, सांयकाल में जपते हुए वेदपुण्येन युज्यते वेदाध्ययन के पुण्य से ही युक्त होता है ।
टिप्पणी :
‘‘गायत्री मन्त्र और उसका अर्थ निम्न प्रकार है -
ओ३म् भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् । (यजुर्वेद ३६।३।। ऋग्वेद ३।६२।१०।।)
अर्थ - ओ३म् यह परमेश्वर का मुख्य नाम है, जिस नाम के साथ अन्य सब नाम लग जाते हैं (भूः) जो प्राण का भी प्राण (भुवः) सब दुःखों से छुड़ाने हारा (स्वः) स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सब सुख की प्राप्ति कराने हारा है, उस (सवितुः) सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले, सूर्य आदि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता देवस्य कामना करने योग्य, सर्वत्र विजय कराने हारे परमात्मा का जो वरेण्यम् अतिश्रेष्ठ, ग्रहण और ध्यान करने योग्य भर्गः सब क्लेशों को भस्म करने हारा, पवित्र, शुद्धस्वरूप है तत् उसको हम लोग धीमहि धारण करें यः यह जो परमात्मा नः हमारी धियः बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में प्र, चोदयात् प्रेरणा करे ।’’
(सं० वि० वेदारम्भ संस्कार)