Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
उत्पत्तिकत्र्ता के गोत्र और धन सम्पत्ति को दत्तक पुत्र नहीं पाता, वरन् जिसका दत्तक पुत्र हुआ है उसके गोत्र तथा धन सम्पत्ति को पाता है और उसी को पिण्ड देता है, जिससे उत्पन्न हुआ है उसको पिण्ड नहीं देता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीनों (9/142-144) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. प्रसंगविरोध- 143-144 श्लोकों में नियोगज पुत्रों में कौन धन का भागी नही होता, यह कथन किया है । परन्तु नियोग से उत्पन्न पुत्रों के दायभाग का विषय 145 श्लोक से प्रारम्भ होता है । प्रसंग के प्रारम्भ करने से पूर्व ही निषेधात्मक विधान असंगत है । और मनु की शैली से विरुद्ध भी है । और यदि ये मौलिक होते तो इनका स्थान 9/146 के बाद होना चाहिये और इन श्लोकों के भावोंके समान भावों को बताने वाला श्लोक 9/147 वां है । अतः यह पिष्ट-पेषण करना उचित नही है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) 142 वां श्लोक 141 में कही बात के खण्डन में लिखा गया है । क्योंकि 141 वें श्लोक में दत्तकपुत्र का (अन्य गोत्र का होने पर भी) सम्पत्ति पर अधिकार बताया है । परन्तु 142 वें मे उसका निषेध करना विरुद्ध बात है ।
(ख) और 143-144 श्लोक मनु की मान्यता से विरुद्ध है । मनु ने (9/59) में स्पष्ट कहा है कि सन्तान का परिक्षय=अभाव होने पर नियोग से प्राप्त करनी चाहिये । किन्तु इन दोनों श्लोकों मे पुत्रवाली होने पर भी दूसरे पुरुष से सन्तान प्राप्ति लिखी है । यह मनुसम्मत नही है । और 145 वें श्लोक में नियोगज सन्तान को सम्पत्ति पर अधिकार औरस-पुत्र की भांति माना है, परन्तु 144वें श्लोक में पैतृक धन के अधिकार का निषेध किया है । और नियोगज पुत्र को पतित कहकर मनु की मान्यता का विरोध किया है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
3. पुनरुक्तदोष- 147 वें श्लोक में नियोग-विधि के बिना सजातीय पुरुष से अथवा देवर से उत्पन्न सन्तान को कामज कहकर निन्दा की है । और यही बात 143 वें श्लोक में "जारजातक=व्यभिचार से उत्पन्न" और "कामज-कामवासना के वशीभूत होकर उत्पन्न" कहकर कही है, यह पुनरुक्तमात्र है । मनु के प्रवचन में इस प्रकार के दोष न होने से यह परवर्ती प्रक्षेप है ।