Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों 9/139-140 श्लोक निम्नलिखित कारणो सें प्रक्षिप्त है—
1. विषयविरोध- (9/103) के अनुसार यहाँ प्रस्तुत विषय दायभोग के विभाजन का है । यहाँ मरणोत्तर पिण्डदान का कथन विषयबाह्य होने से 140 वाँ श्लोक प्रक्षिप्त है ।
2. अन्तर्विरोध- मनु की मान्यता में दूसरे के कर्मो का फल दूसरे को नही मिलता । कर्त्ता ही स्वयं कर्मफल को (4/240) भोगता है । किन्तु यहाँ (139) में पौत्र की भांति दौहित्र भी नानादि को पिण्डदानादि द्वारा स्वर्ग पहुंचा देता है, यह कथन मनुसम्मत नहीं है । और 140 वां श्लोक भी इसी से सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।