Manu Smriti
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ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ।सोमाय राज्ञे सत्कृत्य प्रीतात्मा सप्तविंशतिम् ।।9/129
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
प्रसन्नता व आदर सहित दक्ष प्रजापति ने दस कन्या धर्म को व तेरह कन्या कश्यप ऋषि को और चन्द्रमा को सत्ताईस कन्या दीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो (9/128-129) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है— 1. शैलीगत-विरोध- (क) इन दोनों की ऐतिहासिक शैली होने से ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं है । दक्ष प्रजापति ने पुत्रिका के विधान को अपनाया था, जिससे कुल की वृद्धि हो सके । यहाँ दक्ष प्रजापति का पौराणिक घटना से सम्बन्ध होने से ये श्लोक परवर्ती है । मनु परवर्ती दक्षादि का उल्लेख अपने शास्त्र में कर भी नही सकते । (ख) और (129में) दक्ष ने धर्मराज, कश्यप, और सोम राजा को कन्याये दी, ये पौराणिक काल्पनिक घटनाये ही है । ऐसी काल्पनिक बातें मनु-प्रोक्त नही हो सकतीं । 2. प्रसंग-विरोध- 9/103 श्लोक के अनुसार प्रस्तुत-विषय दायभाग के कथन का है । इसमें पिण्ड-दान का वर्णऩ विषय-विरुद्ध है । और यह कथन भी मिथ्या है कि पैतृक धन के उत्तराधिकारी का यह पिण्ड-दान करना एक कर्त्तव्य बताया गया है, यह बात भी उचित नहीं । क्योंकि कर्त्तव्यों में क्या पिण्ड-दान ही कर्त्तव्य है ? अन्य कर्त्तव्यों का कथन क्यों नही किया ? और ’भस्मान्तं शरीरम्’ (यजु॰) इस वेद के निर्देशानुसार शारीरिक सभी प्रकार के कर्त्तव्य जीवित-दशा में ही होते है मरणोत्तर नहीं । अतः मरणोत्तर पिण्ड-दान करना असत्य-धारणा है । और 133 वां श्लोक 132 से सम्बद्ध होने से प्रक्षिप्त है । 2. शैलीविरोध- 133 वें श्लोक में पौत्र-दौहित्र का अभेद कथन अयुक्तियुक्त है। अन्यथा 127 वें श्लोक में पुत्रिका करने की क्या आवश्यकता है ? दौहित्र का धन का अधिकार पौत्र की भांति कदापि नही हो सकता । केवल आपत्काल (सन्तान के अभाव में) में ही पुत्रिका धर्मानुसार दौहित्र का अधिकार मनु ने माना है ।
 
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