Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
एक के दो स्त्रियाँ हों तथा लघु स्त्री से प्रथम पुत्र उत्पन्न हो और ज्येष्ठ पत्नी के पीछे जन्मे तो अब इस स्थान पर विभाग किस प्रकार करना चाहिये, ऐसी संशयात्मक अवस्था में न्याय विधान को भविष्य में श्लोक कहेंगे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये सात (9/120-126) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. प्रसंग-विरोध- 103 श्लोक से दायभाग के विवरण= पैतृक धन के बंटवारे का प्रसंग चल रहा है । उसी प्रसंग में नियोग से उत्पन्न पुत्रों के दायभाग का प्रसंग इन श्लोकों मे (120-126) में चलाया गया है । यह इसलिये अप्रासंगिक है, क्योंकि मनु ने 9/145-147 श्लोकों में नियोग से उत्पन्न पुत्रों के दाय-भाग का वर्णन पृथक् किया है । उस पृथक् प्रसंग से पूर्व ही उसका प्रारम्भ करना मनुप्रोक्त नहीं है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने 145-146 श्लोकों में नियोग से उत्पन्न सन्तान के लिये जो दाय-भाग की व्यवस्था लिखी है, उसके विरुद्ध यहाँ (120-121) श्लोकों में लिखी है । एक ही प्रवक्ता के प्रवचन में यह असमानता नही हो सकती ।
(ख) और 122-126 श्लोकों मे बहुपत्नी-प्रथा का वर्णन किया गया है यह भी मनु की मान्यता के विरुद्ध है । मनु ने सर्वत्र एकपत्नी-व्रत का ही विधान किया है । इस विषय मे 5/167, 168, 7/177, 3/4-5 इत्यादि श्लोक द्रष्टव्य है । अतः बहुपत्नीवाद और उनकी सन्तानों का दायभाग का विधान मनु-प्रोक्त कदापि नहीं हो सकता ।