Manu Smriti
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उद्धारो न दशस्वस्ति संपन्नानां स्वकर्मसु ।यत्किं चिदेव देयं तु ज्यायसे मानवर्धनम् ।।9/115
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सब भाई अपने कर्म में संलग्न हो तो जो विभाग ऊपर कह आये हैं वह करना, वरन् ज्येष्ठ का आदर स्थित रखने के अर्थ कुछेक छोटी वस्तु अधिक देना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तीन (9/113-115) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- यहाँ पूर्वापर श्लोकों में (9/112, 116 में) दाय-भाग में उद्धार भाग निकालने का प्रसंग है । किन्तु इन श्लोकों में उद्धार से भिन्न बातों का ही (मध्यमादि का) वर्णन किया गया है । और 115 वें श्लोक में ’उद्धारभाग’ का कथन किया है, यह पुनरुक्त तथा अस्पष्ट है । उद्धारभाग का वर्णन 112 वें तथा 116 वें श्लोक में बहुत स्पष्ट है । 2. अन्तर्विरोध- यहाँ 114 वें श्लोक में बड़े भाई को सभी प्रकार की वस्तुओं में से श्रेष्ठ-वस्तु को लेने को कहा है । परन्तु 112 वे मे बीसवां भाग लेने को कहा है । अतः 114 वें का विधान पूर्वोक्त से विरुद्ध है । (ख) 114 वें श्लोक में कहा है कि दश पशुओं में से बड़ा भाई एक श्रेष्ठ पशु को ले लेवे, परन्तु 115 वें श्लोक में उसका निषेध किया है । अतः यह परस्पर विरोधी कथन मनुप्रोक्त नहीं हो सकता ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यह दस में से एक उद्धार लेने का नियम उनके लिये नहीं जो अपने कामों में संपन्न हैं। जो कुछ वे बड़े को दें वह मान के बढ़ाने के लिये हैं।
 
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