Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पूर्वाभिमुख कुशासन पर बैठकर पवित्र मन्त्र से पवित्र होकर तीन बार प्राणायान करें तब ओंकार जपने (कहने) योग्य होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
२।५० (२।७५) वाँ श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) - इस श्लोक में ‘ओम्’ के उच्चारण की योग्यता का उल्लेख किया गया है अर्थात् पूर्वं की ओर मुख करके कुशासन पर बैठकर, पवित्र कुशाओं से मार्जनकर और तीन प्राणायमों से पवित्र होकर ओंकार का उच्चारण करे । ओंकार के लिये इस प्रकार की शर्त लगाना मनु के अभिप्राय से विरूद्ध है । मनु ने किसी भी पुण्यप्रद अथवा धार्मिक कत्र्तव्य से पूर्व इस प्रकार की शर्त नहीं लगाई है । जैसे - २।१०१ से १०६ तक सन्ध्या तथा गायत्री - जप का विधान किया है, किन्तु वहाँ भी इस प्रकार की कोई शत्र्त नहीं लगाई, फिर वेदाध्ययन से पूर्व सन्ध्या से भी बढ़कर इस प्रकार की शर्त मनुसम्मत कैसे हो सकती है ?
(ख) और वेदाध्ययन को सब अवस्थाओं में आवश्यक मनु ने माना है, क्या वेदाध्ययन करने से पूर्व कुशासन, कुशायें, जलपात्रादि रखना, इत्यादि शर्तों को पूरा किया जा सकता है ? और जब - जब भी ओंकार का जप करने की इच्छा होगी, चलते - फिरते, रूग्णावस्था, यात्रा करते समयादि दशाओं में इन साधनों की पूत्र्ति कैसे की जा सकती है ? अतः यह वर्णन व्यावहारिक नहीं है ।
(ग) मनु के अनुसार २।५१ में ओंकार को वेदों से लिया गया है और २।५२ के अनुसार गायत्री मन्त्र को भी वेदों से लिया है । वेद की प्रतिष्ठा तथा पवित्रता को ध्यान में रखकर उपर्युक्त साधनों का एक के लिये आवश्यक तथा दूसरे मन्त्र के लिये नहीं, यह एक लेखक की कृति में कदापि नहीं हो सकता । जब कि २।५३-५८ तक श्लोकों में गायत्री का माहात्म्य विशेष रूप से कहा गया है ।
(घ) यह श्लोक प्रसंगानुकूल भी नहीं है । २।४९ श्लोक में ओंकार के उच्चारण का विधान किया है और २।५१ श्लोक में ओंकार का स्वरूप बताया गया है । इन के मध्य में ओंकार के उच्चारण करने वाले की योग्यता का वर्णन प्रसंग के विरूद्ध होने से यह श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
उस समय वह पूर्वाभिमुखीन कुशासन पर बैठकर, पवित्र संकल्पों से आत्मसंशोधन करके, तीन प्राणायामों से एकाग्रचित्त होकर ‘ओ३म्’ का उच्चारण करे।