Manu Smriti
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एवं सह वसेयुर्वा पृथग्वा धर्मकाम्यया ।पृथग्विवर्धते धर्मस्तस्माद्धर्म्या पृथक्क्रिया ।।9/111

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
इस विधि से सब एकत्र होकर रहें व धर्म करने की अभिलाषा से पृथक-पृथक् रहें क्योंकि पृथक्-पृथक् रहने से धर्म में वृद्धि होती है अतएव पृथक् रहना धर्म में सम्मिलित है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(एवम्) इस प्रकार (सह वसेयुः) सब भाई साथ मिलकर रहें (वा) अथवा (धर्मकाम्यया) धर्म की कामना से (पृथक्) अलग-अलग रहें । (पृथक् धर्मः विवर्धते) पृथक-पृथक् रहने से धर्म का (सबके द्वारा अलग-अलग पञ्चमहायज्ञ आदि करने के कारण) विस्तार होता है (तस्मात्) इस कारण (पृथक् क्रिया धर्म्या) पृथक् रहना भी धर्मानुकूल है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
इस प्रकार बिना बांटे सब भाई इकट्ठे रहें, या धर्म की इच्छा से धन-विभाग करके अलग-अलग रहें। इकट्ठे रहने में यदि कलह रहे, तो पृथक्-पृथक् रहने से धर्म बढ़ता है। अतः, धन-विभाग का कर्म धर्मानुकूल है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
इस प्रकार सब भाई साझे रहें या धर्म की इच्छा से अलग अलग रहें। अलग-अलग रहना भी धर्मानुकूल ही है। क्योंकि इससे धर्म बढ़ता है।
 
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