Manu Smriti
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यस्मिन्नृणं संनयति येन चानन्त्यं अश्नुते ।स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान्विदुः ।।9/107
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिसकी उत्पत्ति से पिता ऋण से मुक्त हो जाता है और मुक्ति पाता है वही पुत्र धर्मतः उत्पन्न हुआ है और सब कामाशक्ति से उत्पन्न हुये हैं, ऋषियों ने कहा है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (9/106-107) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- ये दोनों श्लोक पूर्वापर प्रसंग को भंग कर रहे है । यहाँ 105 श्लोक में संयुक्त परिवार में पिता की सम्पत्ति पर बड़े पुत्र का अधिकार बताकर कहा है कि दूसरे पुत्र उस के साथ रहकर जीवन बितायें और 108 वें श्लोक में बड़े पुत्र का कर्त्तव्य बताया है कि वह छोटे भाइयों का पालन पिता की भांति ही करे । और छोटे भाई बड़े भाई को पिता की भांति समझें । इस प्रकार दोनों का प्रसंग परस्पर सम्बद्ध है । और इनके क्रम को ये दोनों श्लोक भंग करने से प्रक्षिप्त है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने पैतृक-सम्पत्ति के दो विकल्प रक्खे है- (1) संयुक्त परिवार में बड़ा पुत्र सम्पत्ति का अधिकारी बने और वह छोटे भाई-बहनों का पालन-पोषण पिता की भांति ही करे (105,108) अथवा संयुक्त परिवार न रह सके तो सभी भाई पैतृक-सम्पत्ति को बराबर-बराबर बांट लेवें (104) । परन्तु इस तथ्य को न समझकर प्रक्षेपक ने (106 श्लोक मे) ज्येष्ठ-पुत्र की महिमा बताते हुए उसको पैतृक-सम्पत्ति का पूर्ण अधिकारी बताया है । यह अविवेकपूर्ण कथन ठीक नहीं है । और इसका 104 श्लोक से विरोध भी दूर नहीं किया जा सकता । (ख) और 107 श्लोक में बड़े पुत्र को धर्मज और दूसरे पुत्रों को कामज माना है, यह भी मनुसम्मत नहीं है । क्योंकि मनु ने (6/36) मे ’पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः’ कहकर सब पुत्रों को धर्मज माना है । (ग) और यह कथन भी मनु से विरुद्ध है कि ज्येष्ठ पुत्र से "आनत्यमश्नुते" (107) अर्थात् पिता पितृ-ऋण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है । मोक्ष की प्राप्ति जीवात्मा के अपने शुभ कर्मों से होती है । केवल बड़े पुत्र से मोक्ष की प्राप्ति मानना मिथ्या बात है । क्योंकि बड़े पुत्र तो सभी के होते है, क्या सभी मोक्ष के अधिकारी मान लिये जायें ? और मोक्ष-प्राप्ति बड़े पुत्र से सम्भव है, तो मनु के उपदिष्ट दूसरे मोक्षप्राप्ति के साथन निरर्थक ही हो जायेगें । अतः इन अन्तर्विरोधो के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(यस्मिन् ऋणम् सन्नयति) जिस पुत्र के होने से पितृऋण चुक जाता है (येन च आनन्त्यम् अश्नुते) और जिसके होने से परम पद मिलता है (स एव धर्मज्ञः पुत्रः) वही धर्म-पुत्र है (इतरान् कामजान् विदुः) जो ऐसे न हों उनको ’कामज‘ अर्थात् अनुचित सन्तान (पससमहपजपउंजम) समझना चाहिये।
 
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