Manu Smriti
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एतत्तु न परे चक्रुर्नापरे जातु साधवः ।यदन्यस्य प्रतिज्ञाय पुनरन्यस्य दीयते ।।9/99
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (9/97-100) श्लोक निम्नलिखित कारणो से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंगविरोध- यहाँ पूर्वापर के श्लोकों में स्त्री-पुरुषों के संयोगकालीन धर्मों का वर्णन किया गया है और 9/101-103 श्लोकों मे कहा है कि स्त्री-पुरुष साथ-साथ ही रहें । किन्तु इन श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है; अतः ये श्लोक अप्रासंगिक है । 2. विषय-विरुद्ध- यहाँ प्रस्तुत विषय़ स्त्री-पुरुषों के संयोगकालीन धर्मों के कथन का है । परन्तु इन श्लोकों मे विवाह से पूर्व शुल्क देने वाले वर की मृत्यु होने पर देवर के साथ विवाह करना (97) विवाह मे शूद्र भी कन्या के लिये शुल्क न लेवे । (98) एक को कन्या देने का वचन देकर दूसरे को न देना (99) इत्यादि बातें विषय-बाह्य कही गई है । अतः विषयविरुद्ध होने से ये श्लोक मनुप्रोक्त नहीं है । 3. शैलीविरोध- और 100 वें श्लोक में कहा है कि पहले जन्मों में भी शुल्क देकर दुहिता का विक्रय हमने नहीं सुना । यह बात युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि पूर्वजन्म की बातें किसी को स्मरण नहीं रहती, तो दुहिता विक्रय की बात कैसे याद रहेगी ? धर्म-शास्त्र में ऐसी बातों से कदापि विर्णय सम्भव नहीं है । मनु के प्रवचन में ऐसी अयुक्तियुक्त बातें कहीं भी नही है ।
 
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