Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
स्वयं (अपनी ओर से) पति को वरने वाली कन्या माता, पिता, भ्राता आदि के दिये हुये आभूषण को न लेवें, यदि लेवें तो चोर कहाती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (9/92-95) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषयविरोध- मनु के (9/1, 103) में विषय का निर्देश करने वाले श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय स्त्री-पुरुषों के संयोग-वियोगकालीन धर्मों के कथन का है । किन्तु स्वयंवर विवाह करने वाली कन्या का पिता, माता तथा भाई के धन को लेने पर चोर के समान दोष (92) ऋतुमती कन्या का हरण= लेने वाला पिता को शुल्क न देवें (93) विवाह की वर-वधू की आयु का निर्धारण (94) इत्यादि बातों का वर्णन प्रस्तुत विषय़ से भिन्न होने से विषय़-विरुद्ध है ।
2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने स्वयंवर-विवाह का ही विधान किया है और विवाह में माता-पिता आदि कन्या को अलंकारादि से भूषित करे, यह मनु ने (3/55,59) में विधान किया है किन्तु इस 9/92 में पितृ-ग्रह से मिलने वाले आभूषणों को लेने वाली कन्या को चोर कहना पूर्वोक्त विधान से विरुद्ध है ।
(ख) 93-94 श्लोकों में विवाह के लिये वर-वधू की आयु का निर्धारण मनु के विधान से विपरीत है । इन श्लोकों में कन्या के ऋतुमती होने पर पिता का स्वामित्व समाप्त होना माना है, परन्तु 9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष मनु के (3/1-2) विधान से विरुद्ध है । मनु ने (4/1) में आयु के द्वितीय भाग को विवाह के लिये लिखा है । अतः वर-वधू का युवावस्था में विवाह करना चाहिये । 8 अथवा 12 वर्ष की कन्या युवति नहीं होती । ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद कन्या के विवाह का विधान किया है । (9/90) । अतः कन्या के विवाह की आयु का निर्धारण इन श्लोकों में मनु की मान्यता से विरुद्ध है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(स्वयम् वरा कन्या) जिस कन्या ने स्वयम् विवाह किया हो वह (पित्र्यम् मातृकम् वा अलंकारम् न आददीत्) पिता-माता के आभूषण उठा न ले जाय (भ्रातृदत्तम्) या भाई के दिये हुओं को। (यदि तम् हरेत् स्तेना स्यात्) यदि वह ले जाय तो चोर समझी जाय।