Manu Smriti
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भर्तुः शरीरशुश्रूषां धर्मकार्यं च नैत्यकम् ।स्वा चैव कुर्यात्सर्वेषां नास्वजातिः कथं चन ।।9/86
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सब वर्ण में जो अपने वर्ण की स्त्री है वही पति की सेवा शुश्रूषा, तथा प्राचीन धर्म के कार्य करें, अन्य वर्ण की स्त्रियाँ न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये छः (9/82-87) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. अन्तर्रविरोध- (क) 9/85-87 श्लोकों में बहुपत्नीवाद का वर्णन होने से ये श्लोक मनुसम्मत नही है । मनु ने 3/4-5 में स्पष्ट एकवचन का प्रयोग करके एकपत्नी का ही विधान किया है । (ख) और इन श्लोकों में असवर्णा-कन्याओं के साथ भी विवाह का विधान है, यह भी मनुसम्मत नही है । क्योंकि मनु ने "उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णा लक्षणान्विताम् ।" (3/4) कहकर सवर्णा कन्या से ही विवाह का विधान किया है । अतः विरोधी कथन के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त है । 2. शैली-विरोध- 9/82-84 श्लोकों में किन्ही दोषों के कारण विवाहित स्त्री को छोड़कर पुरुष की पुनर्विवाह का अधिकार दिया गया है । यह पक्षपातपूर्ण कथन होने से मनु सम्मत नही है । और प्रथमतो विवाह से पूर्व परीक्षा करने पर ऐसे दोषों की सम्भावना ही नही है । और यदि स्त्रियों मे दोषों का होना सम्भव है तो पुरुषों में मद्यपानादि दोष क्यों सम्भव नही है? यदि पुरुषों को पुनर्विवाह का अधिकार हैं तो स्त्रियों को क्यों नही ? इस प्रकार पक्षपातपूर्ण वर्णन मनुप्रोक्त कदापि नहीं हो सकता । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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