Manu Smriti
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अतिक्रामेत्प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तं एव वा ।सा त्रीन्मासान्परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा ।।9/78
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
प्रमत्त (जुआरी), मत्त (नशेबाज) रोगी पति का अनादर जो स्त्री करती है उसको तीन मास पर्यन्त वस्त्र और आभूषण न देना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (9/77-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं— 1. अन्तर्विरोध- 9/101 श्लोक में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध आमरणान्तिक= जीवनपर्यन्त माना माना है । अतः किसी दोष के कारण छोड़ने की बाते ठीक नही है । और विवाह से पूर्व भली-भांति परीक्षा की जाती है तो इन श्लोकों में कही बातें कैसे सम्भव हैं । 2. शैली-विरोध- और इन श्लोकों में पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । क्योंकि जैसे दोष-स्त्री में सम्भव है, वैसे मद्यपानादि दोष पुरुष में भी सम्भव है । केवल स्त्रियों के दोष कहकर त्यागने की बात कहना पक्षपात-पूर्ण है । मनु की प्रवचन-शैली में समता और न्यानयुक्त बातों का ही समावेश होता है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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