Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः ।ऊर्ध्वं संवत्सरात्त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत् ।।9/77
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पुरुष एक वर्ष पर्यन्त लड़ाई झगड़ा व विवाद करने वाली स्त्री की प्रतीक्षा करे, उसके पश्चात् भी यदि विवाद व विग्रह करती रहे तो आभूषणादि धन जो दिया है उसको हरण कर उससे भोग करना त्याग दे परन्तु भोजन वस्त्र दिये जावें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये चार (9/77-80) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं— 1. अन्तर्विरोध- 9/101 श्लोक में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध आमरणान्तिक= जीवनपर्यन्त माना माना है । अतः किसी दोष के कारण छोड़ने की बाते ठीक नही है । और विवाह से पूर्व भली-भांति परीक्षा की जाती है तो इन श्लोकों में कही बातें कैसे सम्भव हैं । 2. शैली-विरोध- और इन श्लोकों में पक्षपातपूर्ण वर्णन किया गया है । क्योंकि जैसे दोष-स्त्री में सम्भव है, वैसे मद्यपानादि दोष पुरुष में भी सम्भव है । केवल स्त्रियों के दोष कहकर त्यागने की बात कहना पक्षपात-पूर्ण है । मनु की प्रवचन-शैली में समता और न्यानयुक्त बातों का ही समावेश होता है । अतः ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यदि स्त्री पति से द्वेष करती हो तो पति एक वर्ष तक उसकी प्रतीक्षा करे। यदि वर्ष भर में भी उसका सुधार न हो तो दी हुई चीजों को लेकर उसके साथ रहना छोड़ दे।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS