Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पवित्रता से व्रत करने वाली श्वेतवस्त्रधारिणी कन्या का विवाह शास्त्र की रीति अनुसार करके रजोदर्शन पश्चात् गर्भस्थिति होने वाली रातों में एक एक बार उस समय तक भोग करें जब तक गर्भ न स्थित हो जाय, उससे जो सन्तान होगी वह उसकी होगी जिसको वह कन्या वाग्दान पर प्रथम दी गई थी।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दश (9/64-73) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. विषयविरोध- 9/56 श्लोक के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग आपात्काल में स्त्री-पुरुष संयोग और वियोगकालीन धर्मों के कथन का है । तदनुसार 56-59 श्लोकों में उसका कथन भी किया है । किन्तु 64-68 श्लोकों में उस विषय का विरोध किया है और 69-73 श्लोकों में विषय़ से भिन्न देवर द्वारा कन्या-वरण, एक से वाग्दान करके दूसरे को कन्या न देना, छल से कन्या देने पर त्याग करना, इत्यादि बातों का वर्णन किया गया है । अतः विषय-विरुद्ध वर्णन होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
2. अन्तर्विरोध- मनु ने 9/56-63 श्लोकों में जिस नियोग-व्यवस्था का विधान किया है, उसका 9/64-68 श्लोकों मे निषेध करने से ये श्लोक विषयविरुद्ध है । नियोग-व्यवस्था को ही इन दोनों व्यवस्थाओं में मौलिक क्या माना जाये ? इस विषय में निम्न प्रमाण ही अन्तःसाक्षी है- (क) मनु ने नियोग का विधान प्रथम किया है । और बाद में किसी ने इनको खण्डन में श्लोक मिलाये है । (ख) और 9/56 में इस विषय के प्रारम्भ का ओर 9/103 में इस विषय की समाप्ति का स्पष्ट निर्देश किया है । (ग) (9/145-146) श्लोकों में नियोग से उत्पन्न पुत्र को दाय-भाग का पूर्ण अधिकार दिया है । (घ) और 9/147 में नियोग-विधि को त्याग कर जो सन्तान उत्पन्न की जाती है, उसका सम्पत्ति पर कोई अधिकार नही माना है । इस प्रकार नियोग का विधान मौलिक सिद्ध होता है । अतः नियोग का खण्डन करने वाले श्लोक विषयविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है ।
3. वेद-विरुद्ध- मनु ने धर्म विषय में वेद को परम प्रमाण माना है । इसलिये मनु वेद-विरुद्ध कदापि नही कह सकते । 9/65 वें श्लोक में कहा है कि नियोग-धर्म किसी वेद-मन्त्र में नही कहा है । यह प्रक्षेपक का कथन वेदमन्त्रों से अनभिज्ञता प्रकट करता है । क्योंकि वेदमन्त्रों में नियोग का स्पष्ट विधान किया गया है । इस विषय में कतिपय वेद-मन्त्र देखिए-
(क) इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां कृणु ।। (ऋ॰ 10/85/5)
अर्थात् "हे (मीढ्व इन्द्र) वीर्य के सेचने में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष ! तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर ।। (स॰ प्र॰ चतुर्थ॰)
(ख) उदीर्ध्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुष शेष एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभिसंबभूथ ।। (ऋ॰ 10/18/8)
"(नारि) विधवे तू (एतं गतासुम्) इस मरे हुए पति की आशा छोड़के (शेषे) बाकी पुरुषों में से (अभिजीव लोकम्) जीतेहुए दूसरे पति को (उपैहि) प्राप्त हो और (उदीर्ष्व) इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो (हस्तग्राभस्य दिधिषोः) तुझ विधवा के पुनः पाणिग्रहण करने वाले नियुक्त पति के सम्बन्ध के लिये नियोग होगा तो (इदम्) यह (जनित्वम्) जना हुआ बालक उस नियुक्त (पत्युः) पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेंगी तो यह सन्तान (तव) तेरा होगा । ऐसे निश्चययुक्त (अभिसंबभूथ) हो और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करे ।" (स. प्र. चतुर्थ.)
इत्यादि अनेक मन्त्रों में नियोगधर्म का वर्णन किया गया है ।
4. शैली-विरोध- 66-67 श्लोकों में राजा वेणु की बात ऐतिहासिक है । जो इन श्लोकों को स्पष्टरूप से परवर्ती सिद्ध करता है । मनु ऐसा ऐतिहासिक शैली से कही वर्णन नहीं करते ।
5. इनमें 69 वां श्लोक प्रक्षिप्त नही है । क्योंकि इसमें वाग्दान के बाद ही पति के मरने पर विवाह का विधान किया गया है, पुनर्विवाह का नहीं ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
एवं, विवाहविधि के अनुसार उस शुद्धवस्त्रा तथा पवित्राचरणवाली पत्नी को प्राप्त करके, वह पति, जब तक गर्भधारण न हो जावे तब तक प्रत्येक ऋतुकाल में एक ही वार परस्पर में गमन करे।१
टिप्पणी :
१. यह विधान विवाह और नियोग दोनों के लिए समान है। अर्थात्, विवाह और नियोग सन्तानों ही के अर्थ किये जाते हैं, पशुवत् कामक्रीड़ा के लिए नहीं। (स० स० ४)