Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
२।४५ (२।७०) वाँ श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) इस श्लोक में उत्तर दिशा की तरफ मुख करके पढ़ने का विधान किया है । और २।१७८ वें श्लोक में कहा है कि शिष्य गुरू के पास ऐसे स्थान पर बैठे जहाँ गुरू की ओर वायु शिष्य की ओर से न जावें । इन दोनों बातों में परस्पर समन्वय नहीं हो सकता । क्यों कि शिष्य हवा का ध्यान रक्खे या दिशा का ? हवा का ध्यान रखना तो उचित है, जिससे गुरू की तरफ गन्दी हवा न जावे, किन्तु दिशा वाली बात उसके विरूद्ध होने से संगत नहीं है ।
(ख) इस श्लोक में पुनरूक्ति भी है । २।४६ श्लोक में गुरू के पास शिष्य कैसे बैठे ? इसकी विधि ‘ब्रह्मांजलिः - दोनों हाथ जोड़कर’ कही है । उसी को इस २।४५ में ‘ब्रह्मांजलिकृतः’ कहकर पुनः कहा गया है । एक ही लेखक के वचनों में यह पुनरूक्ति सम्भव नहीं है । और २।४६ में ही ‘ब्रह्मांज्जलि’ का लक्षण भी किया गया है । अतः इस श्लोक में पिष्ट - पेषण मात्र ही किया है । अतः यह श्लोक अवान्तर विरोध एवं पुनरूक्ति से युक्त होने से प्रक्षिप्त है ।