Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
बहुत से आचार्य विधवा स्त्री में दूसरी सन्तान को भी उचित जानते हैं और धर्म के अनुकूल समझते हैं, क्योंकि एक सन्तान कतिपय दशा में शून्य तुल्य होती है। परन्तु दूसरी सन्तान आदि के लिये भी कुल वृद्धों की आज्ञा की आवश्यकता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (9/60-61) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. अन्तर्विरोध- (क) इन श्लोकों में नियोग द्वारा एक अथवा दो पुत्रों की प्राप्ति का विधान किया है । यह विधान 9/59 श्लोक से विरुद्ध होने से मान्य नही हो सकता । क्योंकि उस श्लोक में ईप्सिता प्रजा= इच्छा के अनुसार सन्तान प्राप्त करे, यह लिखा है । संख्या का कोई निर्देश नही किया है ।
2. अवान्तरविरोध- 9/60 में एक पुत्र की नियोग से व्यवस्था लिखी है । और दूसरी सन्तान का बिल्कुल निषेध किया है । किन्तु 61वें श्लोक में उद्देश्य पूरा न होने पर दूसरी सन्तान को भी न्याययुक्त माना है । इन दोनों कथनों में परस्पर स्पष्ट विरोध है । इसलिये 9/59 की व्यवस्था ही ठीक है । और 9/62 में भी कोई संख्या नही लिखी है । केवल नियोग का उद्देश्य पूरा होने पर सन्तानोत्पत्ति का निषेध किया है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
परन्तु नियोगधर्म को जानने वाले कई आचार्य, उन स्त्री पुरुषों के नियोग-प्रयोजन को एक पुत्र से पूरा होता हुआ न देखकर, नियुक्त स्त्रियों में दूसरे पुत्र की उत्पत्ति को भी धर्मानुकूल मानते हैं।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(धर्मतः) धर्मानुकूल (तयोः) उन दोनों स्त्री-पुरुषों के (नियोगार्थम्) नियोग के प्रयोजन का (अनिर्वृत्तम्) न पूरा हुआ (पश्यन्तः) जानने वाले (एके तद्विदः) इस विद्या के जानने वाले कुछ आचार्य (स्त्रीषु द्वितीयम् प्रजनम् मन्यन्ते) स्त्रियों में दूसरी संतान उत्पन्न करना भी उचित मानते हैं। अर्थात् नियोग दोनों के प्रयोजन से हो सकता है या तो पुरुष अपने लिये सन्तान चाहे, या स्त्री अपने लिये या दोनों अपने लिये इसलिये केवल एक पुत्र उत्पन्न करने से काम नहीं चले तो अधिक भी उत्पन्न करले।