Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि सन्तान न हो तो अपने कुल के वृद्धा की आज्ञा लेकर पति कुल के सम्बन्धी वा देवर से पुत्र उत्पन्न करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(सन्तानस्य परिक्षये) पति से सन्तान न होने पर अथवा किसी भी प्रकार से सन्तान का अभाव होने पर (सम्यक् नियुक्तिया स्त्रिया) ठीक-ढ़ंग से (परिवार और समाज में विवाहवत् प्रसिद्धिपूर्वक) नियोग के लिये नियुक्त स्त्री को (देवरात् वा सपिंजात् वा ) देवर-स्वजातीय या अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष से अथवा पति की छः पीढ़ियों में पति के छोटे या बड़े भाई से (ईप्सिता प्रजा अधिगन्तव्या) इच्छित सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए अर्थात् जितनी सन्तान अभीष्ट हो उतनी प्राप्त कर ले ।
टिप्पणी :
अनुशीलन- नियोग के लिए ’नियुक्त करना’ या ’नियोग की विधि’ से अभिप्राय यह है कि जैसे समाज और परिवार में प्रसिद्धि पूर्वक विवाह होता है, उसी प्रकार नियोग भी होता है । इन्हीं के समक्ष पुत्र आदि प्राप्त करने के सम्बन्ध में निश्चय होते हैं । उस निश्चय के अनुसार चलना विधि है, और अन्यथा चलना ’विधि का त्याग’ है । ऋषि दयानन्द ने इसी बात को प्रश्नोत्तररूप में स्पष्ट किया है—
"(प्रश्न) नियोग में क्या-क्या बात होनी चाहिए?
(उत्तर) जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग । जिस प्रकार विवाह में भद्रपुरुषों की अनुमति और कन्या-वर की प्रसन्नता होती है वैसे नियोग में भी । अर्थात् जब स्त्री-पुरुष का नियोग होना हो तब अपने कुटुम्ब में पुरुष-स्त्रियों के सामने हम दोनों नियोग सन्तानोत्पत्ति के लिये करते हैं । जब नियोग का नियम पूरा होगा तब हम संयोग न करेंगे । जो अन्यथा करें तो पापी और जाति वा राज्य के दंडनीय हों । महीने में एकबार गर्भाधान का काम करेंगे, गर्भ रहे पश्चात् एक वर्ष पर्य्यन्त पृथक् रहेंगे ।
अनुशीलन- इस श्लोक में देवर शब्द के प्रचलित— ’पति का छोटा भाई’ अर्थ के साथ विस्तृत अर्थ भी है । निरुक्त में ’देवर’ शब्द की निरुक्ति निम्न दी है—
देवरः कस्मात् द्वितीयो वर उच्यते ।।"
अर्थात्- "देवर उसको कहते है कि जो विधवा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो । जिससे नियोग करे उसी का नाम देवर है ।"
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
सन्तान के सर्वथा क्षय होने पर यदि सन्तान की इच्छा हो, तो स्त्री को चाहिए कि वह विधिपूर्वक नियोग करके (सपिण्डाद् वा) पति की छः पीढ़ियों में पति के किसी छोटे व बड़े भाई से, (देवराद् वा) अथवा स्वजातीय अथवा अपने से उत्तम जातिस्थ किसी पुरुष से अभीष्ट सन्तान उत्पन्न करले।१
टिप्पणी :
१. देवरः कस्मात् द्वितीयो वर उच्यते (निरुक्त)। देवर उसको कहते हैं कि जो विधवा का दूसरा पति होता है। चाहे वह पति का छोटा भाई व बड़ा भाई हो, अथवा अपने वर्ण व अपने से उत्तम वर्ण वाला हो। इनमें से जिससे नियोग करे, उसी का नाम देवर है। (स० स० ४)
क्योंकि इस श्लोक में आए ‘सपिण्डाद्वा’ से पति का भाई आ जाता है, अतः ‘देवराद्वा’ से स्वामी जी ने दूसरा उपर्युक्त अर्थ किया है। और स्वजातीय से अभिप्राय स्ववर्णस्थ से ही है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
सन्तानस्य परिक्षये) सन्तान न होने पर अर्थात् जब खानदान का सिलसिला टूटने का भय हो, उस समय (देवरात् सपिण्डात् वा) देवर या पति के वंशवाले के साथ (सम्यक्नियुक्तया स्त्रिया) विधिपूर्वक नियोग करने वाली स्त्री (प्रजा-ईप्सिता) सन्तान की इच्छा को (अधिगन्तव्या) पूरी कर ले।
अर्थात् वंश-छेद होने का भय हो, तो स्त्री देवर या उसी वंश के किसी पुरुष से नियोग कर सकती है।