Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
गुरू शिष्यं उपनीय शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके आदितः पहले शौचम् शुद्धि - स्वच्छता से रहने की विधि आचारम् सदाचरण और सद्व्यवहार अग्निकार्यम् अग्निहोत्र की विधि संध्योपासनम् एव और सन्ध्या - उपासना की विधि शिक्षयेत् सिखाये ।
टिप्पणी :
‘‘संन्ध्यायन्ति सन्ध्यायते वा परब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या अर्थात् भलीभांति जिसमें परमेश्वर का ध्यान करते हैं अथवा जिसमें परमेश्वर का ध्यान किया जाये, वह ‘संध्या’ है ।’’
इस प्रकार गायत्री मन्त्र का उपदेश करके संध्योपासन को जो स्नान, आचमन, प्राणायाम आदि क्रिया हैं, सिखलावें । प्रथम स्नान, इसलिए है कि जिससे शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्य आदि होते हैं ।
(स० प्र० तृतीय समु०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
(१) गुरु शिष्य का उपनयन करके सब से पूर्व उसे शुद्धि, शिष्टाचार, सांय प्रातः अग्निहोत्र और सन्ध्योपासन की शिक्षा दे। अर्थात्, ब्रह्मचारी का पहला कर्तव्य उपर्युक्त चारों बातों का पूरा करना है।