Manu Smriti
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यथा गोऽश्वोष्ट्रदासीषु महिष्यजाविकासु च ।नोत्पादकः प्रजाभागी तथैवान्याङ्गनास्वपि ।।9/48
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जिस प्रकार गऊ, घोड़ा, ऊँट, दासी, भैंस, बकरी, भेड़ इनमें बच्चा उत्पन्न करने वाला बच्चे को नहीं पाता वैसे ही परस्त्री में सन्तान उत्पन्न करने वाला सन्तान का स्वामी नहीं होता।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- 41वें श्लोक में पर-स्त्री में बीजवपन का निषेध किया है । और 49वें श्लोक में उसका कारण बताया है । इस प्रकार इन पूर्वापर श्लोकों में सम्बद्धता है । इन श्लोकों ने उस पूर्वापर प्रसंग को भंग कर दिया है । क्योंकि 43 में शिकारी से बींधे मृग का, 44 में पृथु की भार्या का दृष्टान्त और 46-47 मे कन्यादान, विक्रयादि से पत्नी का पृथक् न होनादि बातो का कथन अप्रासंगिक है । 2. विषय-विरोध- 9/25 श्लोक के अनुसार प्रस्तुत विषय प्रजाधर्म=सन्तानोत्पत्ति- धर्मों के कथन का है । परन्तु 42-44 में शिकारी पृथु के उदाहरणों 45 में पुरुष की पूर्णता, 46-47 में कन्यादानादि के कथन और 48 में पशुओं के उदाहरणो ने उस विषय से विरुद्ध कथन किया है अतः ये प्रक्षिप्त है । 3. शैलीविरोध- इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । 44 वें श्लोक में पृथु-राजा का उदाहण किया है मनु परवर्ती पृथु राजा का उदाहरण कैसे दे सकते है ? और इसी प्रकार 46 वें में प्रजापतिनिर्मितम् कहकर प्रक्षेपक ने प्रजापति के नाम से श्लोकों को प्रमाणित करने की चेष्टा की है । अतः शैलीविरोध के कारण भी ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
 
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