Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अंशविभाग, कन्यादान, अन्यदान सत्पुरुष एक बार ही करते हैं, यदि दूसरी बार करे तो उनके वचनों का विश्वास नहीं रहता क्योंकि जिसकी प्रतिज्ञा भंग हो जाती है वह झूठा है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—
1. प्रसंग-विरोध- 41वें श्लोक में पर-स्त्री में बीजवपन का निषेध किया है । और 49वें श्लोक में उसका कारण बताया है । इस प्रकार इन पूर्वापर श्लोकों में सम्बद्धता है । इन श्लोकों ने उस पूर्वापर प्रसंग को भंग कर दिया है । क्योंकि 43 में शिकारी से बींधे मृग का, 44 में पृथु की भार्या का दृष्टान्त और 46-47 मे कन्यादान, विक्रयादि से पत्नी का पृथक् न होनादि बातो का कथन अप्रासंगिक है ।
2. विषय-विरोध- 9/25 श्लोक के अनुसार प्रस्तुत विषय प्रजाधर्म=सन्तानोत्पत्ति- धर्मों के कथन का है । परन्तु 42-44 में शिकारी पृथु के उदाहरणों 45 में पुरुष की पूर्णता, 46-47 में कन्यादानादि के कथन और 48 में पशुओं के उदाहरणो ने उस विषय से विरुद्ध कथन किया है अतः ये प्रक्षिप्त है ।
3. शैलीविरोध- इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । 44 वें श्लोक में पृथु-राजा का उदाहण किया है मनु परवर्ती पृथु राजा का उदाहरण कैसे दे सकते है ? और इसी प्रकार 46 वें में प्रजापतिनिर्मितम् कहकर प्रक्षेपक ने प्रजापति के नाम से श्लोकों को प्रमाणित करने की चेष्टा की है । अतः शैलीविरोध के कारण भी ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सकृत् अंशः निपतति) जायदाद का बांट एक बार होता है। अर्थात् एक बार बांट हो गया तो फिर झगड़ा क्यों करें। (सकृत् कन्या प्रदीयते) अर्थात् पिता कन्यादान एक बार करता है। जिससे विवाह कर दिया उससे कर दिया। यह नहीं कि आज कन्या ब्याह दी। कल उससे वापिस ले ली। (ददानि इति सकृत अहि) वचन एक बार दिया जाता है। जब कह दिया कि अमुक वस्तु दूँगा, तो बस। उससे मुकरना क्यों ? भद्र पुरुष इन तीनों बातों को एक बार ही करते हैं, अर्थात् मुकरते नहीं।
टिप्पणी :
नोट-कुछ लोग ’सकृत कन्या प्रदीयते‘ को पुनर्विवाह के विरोध में लगाते हैं, यह प्रसंग से विरुद्ध है। पिछले श्लोक के पढ़ने से स्पष्ट है कि इसका केवल तात्पर्य है कि विवाह कर कन्या लौटाई नहीं जा सकती।