Manu Smriti
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तत्प्राज्ञेन विनीतेन ज्ञानविज्ञानवेदिना ।आयुष्कामेन वप्तव्यं न जातु परयोषिति ।।9/41
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
सहनशील, विनीत, बुद्धिमान, पूर्ण, ज्ञान-विज्ञान अर्थात् वेदशास्त्रों के ज्ञाता व दीर्घजीवी होने की अभिलाषा करने वाले जो पुरुष हैं वे परस्त्री में अपने बीज को न डालें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. प्रसंग-विरोध- 41वें श्लोक में पर-स्त्री में बीजवपन का निषेध किया है । और 49वें श्लोक में उसका कारण बताया है । इस प्रकार इन पूर्वापर श्लोकों में सम्बद्धता है । इन श्लोकों ने उस पूर्वापर प्रसंग को भंग कर दिया है । क्योंकि 43 में शिकारी से बींधे मृग का, 44 में पृथु की भार्या का दृष्टान्त और 46-47 मे कन्यादान, विक्रयादि से पत्नी का पृथक् न होनादि बातो का कथन अप्रासंगिक है । 2. विषय-विरोध- 9/25 श्लोक के अनुसार प्रस्तुत विषय प्रजाधर्म=सन्तानोत्पत्ति- धर्मों के कथन का है । परन्तु 42-44 में शिकारी पृथु के उदाहरणों 45 में पुरुष की पूर्णता, 46-47 में कन्यादानादि के कथन और 48 में पशुओं के उदाहरणो ने उस विषय से विरुद्ध कथन किया है अतः ये प्रक्षिप्त है । 3. शैलीविरोध- इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है । 44 वें श्लोक में पृथु-राजा का उदाहण किया है मनु परवर्ती पृथु राजा का उदाहरण कैसे दे सकते है ? और इसी प्रकार 46 वें में प्रजापतिनिर्मितम् कहकर प्रक्षेपक ने प्रजापति के नाम से श्लोकों को प्रमाणित करने की चेष्टा की है । अतः शैलीविरोध के कारण भी ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
अतः, रजवीर्य के ज्ञान-विज्ञानरूपी प्रसूतितंत्र के जानने वाले, सदाचारसम्पन्न और दीर्घ आयु चाहने वाले बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि वह परस्त्री में कभी वीर्य-वपन न करे।१
टिप्पणी :
१. अब इस पर स्त्री और पुरुष को ध्यान रखना चाहिये कि वे वीर्य और रज को अमूल्य समझें। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को पर स्त्री, वेश्या या दुष्ट पुरुषों के सङ्ग में खोते हैं, वे महामूर्ख होते हैं। क्योंकि, किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के बिना अन्यत्र बीज नहीं बोते। जब कि साधारण बीज और मूर्ख का भी ऐसा वर्ताव है, तो जो सर्वोत्तम मनुष्य-शरीररूप वृक्ष के बीज को कुक्षेत्र में खोता है, वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उसका फल उसको नहीं मिलता। (स० स० ४)
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
प्राज्ञ, विनीत, ज्ञान-विज्ञानवेत्ता और आयुष्काम (आयु को चाहने वाले) पुरुष को चाहिये कि पराई स्त्री में अपना बीज न बोवें। अर्थात् कभी व्यभिचार न करें।
 
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