Manu Smriti
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इयं भूमिर्हि भूतानां शाश्वती योनिरुच्यते ।न च योनिगुणान्कांश्चिद्बीजं पुष्यति पुष्टिषु ।।9/37
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जितने पंच भौतिक जीवधारी हैं उनकी उत्पत्ति का द्वार क्षेत्र (खेत लक्ष्मी) है, कोई वस्तु बोने तथा उपजने के गुण के रिक्त बीज की कुछ परिपुष्टता नहीं करती है, अतएव बीज ही मुख्य तथा श्रेष्ठ है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये छः (9/35-40) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त हैं— 1. प्रसंग-विरोध- यहां पूर्वापर श्लोकों का (34 का 41वें से) प्रसंग परस्पर संबद्ध है । क्योंकि दोनों श्लोकों मे मानव-बीजवपन का प्रसंग है । प्रत्येक पुरुष को परस्त्री के साथ व्यभिचार से सदा बचना चाहिये । परन्तु इन श्लोकों में इस प्रसंग के विरुद्ध भूमि में किसानों के द्वारा बीज-वपन का वर्णन करना अप्रासंगिक है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
यह पृथ्वी भूतों की नित्य योनि कही जाती है। परन्तु बीज पुष्ट होकर भूमि के किसी गुण को पुष्ट नहीं करता।
 
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