Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
२।४१ -४२ (२।६६-६७) ये दोनों श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) संस्कारों के समय जो वेद - मन्त्र बोले जाते हैं, उनमें उन संस्कारों के लाभादि का वर्णन है । अतः संस्कारों में मन्त्रोच्चारण करना अत्यावश्यक है । क्या मन्त्रोक्त उपदेशों की स्त्रियों के लिये आवश्यकता नहीं है ?
अतः २।४१ में बिना मन्त्र की बात पक्षपात - पूर्ण एवं पौराणिकप्रभाव को द्योतित कर रही है । ईश्वरोक्त होने से मन्त्रों का उपदेश मानव - मात्र के लिये है । मन्त्रों से स्त्रियों को वंच्चित रखना पक्षपात पूर्ण है ।
(ख) स्त्रियों के संस्कार बिना मन्त्रों के करने की मान्यता मनु के आशय से भी विरूद्ध है । मनु ने धर्म कार्यों में स्त्री - पुरूष का समान अधिकार माना है । जैसे - जात कर्मसंस्कार में ‘मन्त्रवत् प्राशंन चास्य’ (२।४) मन्त्रोच्चारणपूर्वक मधु चटाने का स्पष्ट विधान किया है । इसी प्रकार विवाह संस्कारादि के समय में भी वैदिक - संस्कारों का विधान है । यदि वेद - मन्त्रों का ही पाठ न हो तो वैदिकता कहाँ रह जायेगी ? ३।२८ श्लोक में मनु ने दैव - विवाह का विधान किया है, जो अग्निहोत्र पूर्वक ही होता है और अग्नि होत्र मन्त्रोच्चारण के बिना कैसे सम्भव है ? मनु ने ९।२८ में ‘अपत्यं धर्म - कार्याणि’ और ९।११ में भी धर्म कार्यों को स्त्री के आधीन कहा है । ९।९६ में ‘तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः’ स्त्री को धर्म कार्यो में साथ रखने का आदेश दिया है । (२।२६ - २८) श्लोकों में मनु जी ने संस्कारों को समानता से सभी के लिये आवश्यक कहा है । और संस्कार मन्त्र - पूर्वक ही होते हैं । अतः इन श्लोकों का कथन मनु की मान्यता से विरूद्ध है ।
(ग) इन श्लोकों की बात वेद - विरूद्ध होने से भी असत्य है । मनु ने सर्वत्र वेद को परम - प्रमाण माना है । और धर्म कार्यों के लिये तो ‘धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ कहकर वेद को परम प्रमाण माना है । फिर वे वेद से विरूद्ध कैसे कह सकते हैं ? वेद में कहा है - ‘यथेमां वाचं कल्याणीम् आवदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय............।’ (यजु० २६।२) अर्थात् परमेश्वर का ज्ञान मानव मात्र के लिये है । चारों वर्णों, स्त्रियों , भृत्यों, अतिशूद्रादि के लिये भी वेद का उपदेश है । और मन्त्रों के पाठ का जो प्रयोजन मनुष्यों के लिये है, क्या स्त्रियों के लिये उसकी आवश्यकता नहीं है ? अतः स्त्रियों के संस्कार बिना मन्त्र के कहना अवैदिक मिथ्यामान्यता है । प्राचीनकाल में गार्गी, मैत्रेयी आदि विदुषी स्त्रियों के उदाहरण भी इस बात को परिपुष्ट करते हैं कि स्त्रियाँ भी वेदादिशास्त्रों को पढ़ती थीं ।
(घ) ये दोनों श्लोक प्रसंग - विरूद्ध भी हैं । यहाँ द्विजों के उपनयन संस्कार का प्रकरण चल रहा है । जैसे - २।४३ में प्रकरण की समाप्ति करते हुए मनु जी ने कहा है - ‘एषः प्रोक्तः द्विजातीनामौपनयनिको विधिः’ । परन्तु इन दोनों श्लोकों में उपनयन से भिन्न वैवाहिक विधि आदि का वर्णन किया है । अतः ये प्रसंगविरूद्ध है ।
(ड) २।४२ वें श्लोक में स्त्रियों के विवाह - संस्कार को ही उपनयन संस्कार, पतिसेवा को गुरूकुलवास, और घर के कार्यों को ही अग्निहोत्रादि धार्मिक कार्य मानने की बात भी इस बात का स्पष्ट संकेत कर रही है कि ये श्लोक उस समय मिलाये गये हैं, जब स्त्रियों से वेद - पठनाधिकार छीन लिया गया और उनके प्रति हीन भावना होने लगी । और यह वर्णन वेद एवं मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मनु ने ९।२८ तथा ९।११ में यज्ञादिधर्मकार्यों को स्त्रियों के आधीन कहा है । क्या बिना पढ़े धर्म कार्य हो सकते हैं ? और वेद में ‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।’ (अथर्व० ३।५।१८) यहाँ कन्याओं को ब्रह्मचर्याश्रम का स्पष्ट विधान किया है । और ब्रह्मचर्याश्रम के लिये गुरूकुलवास करना अनिवार्य है । अतः इन श्लोकों का कथन अव्यावहारिक, वेद तथा मनु से विरूद्ध होने से मिथ्या है ।
(च) इन दोनों श्लोकों के कथन में परस्पर विरोध भी इन को अर्वाचीन सिद्ध कर रहा है । २।४१ श्लोक में कहा है कि स्त्रियों के ये संस्कार बिना मन्त्र के करने चाहिये और २।४२ में स्त्रियों के लिये उपनयनादिसंस्कारों का निषेध दूसरे कार्यों को बताकर कर दिया है । यदि इन संस्कारों को बिना मन्त्र के करना चाहिये तो निषेध करना निरर्थक है और यदि निषेध का विधान हैं, तो बिना मन्त्र के करे, यह कथन भी विरूद्ध है । अतः अवान्तरविरोध होने से भी ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।