Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो स्त्री मन, वचन, कर्म के पापों से रहित होकर अपने भर्ता (पति) को छोड़ अन्य पुरुष से भोग नहीं करती है वह पतिलोक को पाती है और संसार में उत्तम पुरुष (साधुजन) उसको साध्वी (सदाचारिणी) कहते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (9/29-30) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है—-
1. प्रसंगविरोध- यहाँ पूर्वापर के श्लोकों में पुत्र-सम्बन्धी प्रसंग है । किन्तु इन श्लोक में स्त्री के आचरण और उसके फल का कथन प्रसंगविरुद्ध है । और क्रम को भंग करनेवाला है ।
2. विषय-विरोध- 9/25 श्लोक के अऩुसार प्रस्तुतविषय प्रजाधर्म= सन्तानोत्पत्ति सम्बन्धी धर्मों के कथन का है । इनके मध्य में स्त्रियों के आचरण तथा उसके फल का कथन करना विषय़बाह्य है । अतः विषयविरोध के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त है ।
3. पुनरुक्ति-दोष- ये दोनों ही श्लोक 5/164-165 में अक्षरशः आ चुके है । मनु ऐसी पुनरुक्त, विषयविरुद्ध और असंगत बाते कैसे कह सकते है? अतः स्पष्ट है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न कोई परवर्ती व्यक्ति है, जिसने पूर्वापर पर बिना विचारे ही इन-श्लोकों का मिश्रण किया है ।