Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
कुमारावस्था (बालापन) में पिता, यौवनावस्था में पति, और वृद्धावस्था में पुत्र को रक्षा करनी चाहिये। क्योंकि स्त्रियाँ स्वतन्त्र होने के योग्य नहीं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दो श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है—
1. अन्तर्विरोध- इन श्लोकों की मान्यता मनु-सम्मत नही है । इनमें स्त्रियों को स्वतन्त्र न रखने की बात कही है, यह स्त्रियों के प्रति हीनभावना बहुत ही परवर्ती काल की है । मनु ने पुरुषों की भांति ही स्त्रियों के भी समान अधिकार माने हैं । उन्होने इस शास्त्र में पति-पत्नी के समानस्तर के कर्त्तव्यों का विधान किया है । पत्नी को गृहस्वामिनी कहकर पत्नी की परतंत्रता की बात का खण्डन किया है 9/101-102 में स्त्री-पुरुष के समान धर्मों का कथन किया है और 9/10 में स्पष्ट कहा है कि स्त्रियों को कोई बलात् परवश करके दोषों से नही बचा सकता । 9/11 में स्त्री का सब धन का अधिकार, धन का आय-व्यय का हिसाब रखना, धार्मिक कृत्यों की सब व्यवस्था और घर का सब प्रबन्ध का काम सौंपा है । और मनु ने 3/55 से 63 तक श्लोकों में स्त्री का पूर्ण सत्कार करने और 9/26 में गृहदीप्ति कहकर स्त्रियों का सम्मान तथा स्वतन्त्रता मानी है । अतः ये (2-3) श्लोक मनु की मान्यता से विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
बचपन में स्त्री की रक्षा पिता करता है। यौवन अवस्था में पति, वृद्धावस्था में पुत्र। स्त्री कभी अपनी रक्षा आप नहीं कर सकती।