Manu Smriti
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भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः ।यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ।।8/416
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपनी स्त्री के पुत्र व दास यह सब जिस धन को एकत्र करें वह सब धन उनके स्वामी का है और यह स्वामी की जीवितावस्था में उसके अधिकारी नहीं हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये ग्यारह (८।४१०-४२०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - मनु ने ८।४ - ८ श्लोकों में अष्टम - नवम अध्यायों के विषयों का निर्देश किया है । तदनुसार १८ विवादों का निर्णय ही प्रसंगानुकूल है । और इन विवादों की समाप्ति ९।२५० में होती है । किन्तु इन विवादों के निर्णय से पूर्व ही ८।४२० में व्यवहारों की समाप्ति तथा उनके फल का कथन करना असंगत है । २. विषय - विरोध - मनु द्वारा निर्धारित (८।४-८ में) विषयों से बाह्य होने के कारण ये श्लोक विषयविरूद्ध हैं । क्यों कि विषय निर्देश के अनुसार १८ व्यवहारों का ही वर्णन होना चाहिए । किन्तु इनमें चारों वर्णों के अपूर्ण कर्मों का (४१० में) क्षत्रिय और वैश्य की आजीविका स्वकर्मों से न हो रही हो तो ब्राह्मण उनका पोषण करे (४११ में) शूद्र को दास्यवृत्ति के लिए बनाना (४१३ - ४१४) में दास योनियों का वर्णन (४१५ में) स्त्री, पुत्र तथा दास को धन के अयोग्य कहना (४१६ में) शूद्र के धन को ब्राह्मण द्वारा लेना (४१७ में) वैश्य शूद्र के स्वकर्म न करने पर जगत् की स्थिति का वर्णन (४१८ में) और (४१९ - ४२० में) राजा के कत्र्तव्यों का वर्णन करना विषयविरूद्ध होने से प्रक्षिप्त है । ३. अन्तर्विरोध - (क) ४१२ - ४१६ श्लोकों में दासप्रथा का उल्लेख और उनसे बलात् काम कराने का विधान मनु - सम्मत नहीं है । मनु की वर्णव्यवस्था में दास का कोई अस्तित्व ही नहीं है । मनु ने शूद्र को भी स्वेच्छा से द्विजों की सेवा कार्य का अधिकार दिया है । इस विषय में १।९१, ९।३३४ - ३३५, १०।९९ ये श्लोक द्रष्टव्य हैं । (ख) और ४१३ श्लोक में क्रीत - दास को भी शूद्र लिखा है । क्रीत - दास की प्रथा बहुत ही परवत्र्ती समय की है । मनु के विधान में ऐसी कहीं व्यवस्था नहीं है । जन्मना वर्णव्यवस्था के प्रचलित होने पर किसी ने शूद्रों की हीन भावना के कारण इन श्लोकों का मिश्रण किया है । ४१४ श्लोक में शूद्र का दासत्व निसर्गज - स्वाभाविक कहकर जन्मना वर्णव्यवस्था की ही पुष्टि की है । किन्तु यह मनु - सम्मत विधान नहीं है । (ग) ४१५ श्लोक में सात प्रकार के दासों का परिगणन किया है । जिनमें पैतृकदास - पिता की परम्परा से बना हुआ । दण्डजदास - ऋणादि न चुकाने के कारण दास बना हुआ, गृहजः - दासी से उत्पन्न दास इत्यादि बातें मुस्लिम - कालीन युग के प्रभाव के कारण प्रक्षेप हुई हैं । (घ) और ४१६ में स्त्रियों को धन का अधिकार ही नहीं दिया है । यह भी शूद्र की भांति स्त्री - जाति के प्रति हीनभावना ही प्रकट की है । मनु ने भार्या को गृहस्वामिनी, सम्राज्ञी आदि शब्दों से सम्मानित किया है जिसे धन आदि का अधिकार ही नहीं हो, क्या वह गृहस्वामिनी या सम्राज्ञी कहला सकती हैं ? इत्यादि अन्तर्विरोधों के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं । ४. शैली - विरोध - इन श्लोकों की शैली पक्षपात, दुराग्रह एवं घृणायुक्त है । मुन की शैली समभाव एवं न्याययुक्त होती है । ४१७ में शूद्र के धन पर ब्राह्मण का बिना किसी कारण के अधिकार बताना और ४१२ श्लोक में द्विजों से भी ब्राह्मण की दासता कराना पक्षपातपूर्ण ही है । और (४१३ श्लोक में) ‘ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा’ इस वाक्य से स्पष्ट है कि प्रक्षेप करने वाले ने अपने श्लोकों को ब्रह्मा के नाम से प्रामाणिक कराने की चेष्टा की है । और इस शास्त्र को ब्रह्मा से प्रोक्त माना है । यह वस्तुतः असत्य कल्पना मात्र है । अतः मनु के शैली के न होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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