Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः ।वैश्योऽद्भिः प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ।2/62
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पूर्व मुँह या उत्तर मुँह होकर फेन रहित शोषण जल से जलशून्य स्थान में पवित्रता और शुद्धता से आचमन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
(क) यहाँ द्विजों के कर्मों तथा उपनयन संस्कार का प्रकरण चल रहा है । (२।२८ (२।५३)) श्लोक में तो स्पष्ट रूप से ‘द्विज’ शब्द का पाठ किया गया है । और उपनयन विधि में जितने भी अन्य कर्मों का वर्णन हुआ है , उसमें शूद्र का कहीं नाम नहीं है, फिर आचमन विधि में शूद्र का कथन प्रसंग के विरूद्ध है । (ख) आचमन की विधि का सन्ध्या, यज्ञ तथ संस्कारों के प्रारम्भ में विधान है । अतः इस विधि का ‘एकान्त’ से विशेष प्रयोजन संगत नहीं होता । प्रस्तुत उपनयन संस्कार में भी एकान्त कदापि सम्भव नहीं है, अतः इन श्लोकों में एकान्तता की बात अव्यावहारिक होने से असंगत ही है । (ग) ‘सन्ध्या’ के विषय में तो पूर्व - पश्चिम का विधान तथा व्यवहार होता है । जैसे मनु ने भी कहा है - ‘न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम् ।’ सन्ध्या में भी उत्तर दिशा का कहीं वर्णन नहीं मिलता । और यज्ञ, संस्कारादि में भी सब का उत्तर - मुख होना कदापि सम्भव नहीं है, तो क्या आचमन करने के लिये सबको प्रातः - सांय दिशा परिवर्तन करना चाहिये ? और सन्ध्या के समय में भी दिशा का निर्धारण करना अनिवार्य नहीं है, क्यों कि सर्वव्यापक परमात्मा की उपासना किसी ओर मुख करके की जा सकती है सन्ध्या के समय वायु के प्रवाह का भी ध्यान रखना होता है । अतः उत्तर दिशा की ओर मुख करके आचमन की बात सर्वथा अव्यवहार्य है । (घ) २।१९७ श्लोक में दोनों सन्ध्याओं में आचमन करके गायत्री जप का विधान किया है । इसी प्रकार २।७६-७७ श्लोकों में भी कहा गया है । इनमें कहीं भी दिशा - विशेष का विधान नहीं किया है । २।३६ में उत्तर दिशा का विधान करने से परस्पर - विरोध हो जाता है, जो कि एक लेखक की मान्यता नहीं हो सकती । (ड) चारों वर्णों का विभाग गुण - कर्मानुसार ही मनु ने माना है । सब वर्णों की शरीर - रचना में परमात्मा ने ऐसा कोई अन्तर नहीं रक्खा है कि ब्राह्मण की पवित्रता हृदय तक आचमन - जल जाने से हो, क्षत्रिय की कण्ठ तक, वैश्य की मुख तक और शूद्र की ओष्ठ से छूने से ही पवित्रता हो जाये । यह निराधार व पक्षपातपूर्ण वर्णन है । और आचमन का प्रयोजन कफादि की निवृत्ति करना है, जिससे सन्ध्या आदि कार्य निर्विघ्न हो सकें । फिरी यह प्रयोजन उपर्युक्त भिन्नता से कैसे सम्भव है ? मुख तक अथवा छूने से तो आचमन का प्रयोजन कभी सिद्ध नहीं हो सकता । और कर्मों की दृष्टि से देखा जाये तो निचले वर्णों को हृदय तक पहुंचने वाला आचमन करना चाहिये । अतः इस प्रकार का वर्णन निरर्थक, अयुक्तियुक्त तथा पक्षपातपूर्ण होने से मान्य नहीं हो सकता ।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS