Manu Smriti
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प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशतिद्विजे ।अर्हावभोजयन्विप्रो दण्डं अर्हति माषकम् ।।8/392
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
यदि उत्तम कार्य में शांति के हेतु ब्राह्मण भोजन कराना हो और वैश्य अपने घर के सामने या एक घर छोड़कर दूसरे घर में रहने वाले ब्राह्मण को भोजन न करावे तो एक माशा चाँदी दण्ड देवें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये आठ (८।३९० - ३९७) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. विषयविरूद्ध - मनु ने आठवें अध्याय के प्रारम्भ में (८।४-७में) अष्टम - नवम अध्यायों के १८ मुख्यविषयों का निर्देश किया है । उसके अनुसार अष्टमाध्यम में १५वें ‘स्त्रीसंग्रहण’ विषय तक का वर्णन किया गया है । और यह विषय ३८७ श्लोक में समाप्त हो जाता है । उसके बाद सोलहवां विषय (स्त्री - पुरूषधर्म - विषय) का वर्णन होना चाहिये । और यह १६वां विषय नवमाध्याय के प्रथम श्लोक से प्रारम्भ किया गया है । अतः इन दोनों विषयों के मध्य में जो श्लोक है, वे विषय विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । २. अन्तर्विरोध - इन सभी श्लोकों की बातें मनु की मान्यता से विरूद्ध हैं । (क) ३९० - ३९१ श्लोकों में कहा है कि राजा आश्रमों में द्विजों के धर्म - विषयक विवाद में निर्णय न देवे । किन्तु (१२।११०) श्लोक में कहा है कि राजा दश या तीन श्रेष्ठ पुरूषों की परिषद् द्वारा निर्धारित धर्म को चलावे । अतः धर्म - निर्णय भी राजा की परिषद् करेगी । (ख) ३९२ - ३९३ श्लोकों में ब्राह्मणों को भोजन कराने की बात किसी उद्रम्भरी जन्मजात ब्राह्मण ने मिलाई है । मनु ने इस प्रकार ब्राह्मणों को भोजन कराने की बात कहीं नहीं लिखी है । ब्राह्मण के कर्मों में अध्यापन, याजनादि कर्म मनु ने आजीविका के बताये हैं । इनसे ही ब्राह्मण को आजीविका करनी चाहिए । दूसरों के घरों में बिना किसी कारण के भोजन करना निन्दनीय है । इस विषय में ३।१०४, ४।३, १०।७५-७६ श्लोक मनु की मान्यता के प्रतिपादन करने वाले हैं । (ग) ३९४ - ३९५ श्लोकों में अन्धे, पंगु आदि से कर लेने का निषेध किया है । यह विधान भी अनावश्यक ही है । क्यों कि मनु ने आय पर करनिर्धारण किया है और वह भी कृषि, व्यापारादि करने वाले वैश्य पर कर लगाया है । इस विषय में ७।१२७, १३० - १३१ श्लोक द्रष्टव्य हैं । (घ) ३९५ श्लोक में महाकुलीन - उत्तम कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के सत्कार की बात भी मनुसम्मत नहीं हैं । क्यों कि मनु ने सत्कार का आधार गुणों को माना है, कुल को नहीं । इस विषय में २।१३६-१३७, १५४ श्लोक द्रष्टव्य हैं । (ड) और ३९६ - ३९७ श्लोकों में धोबी व जुलाहे के विषय में कहा है कि धोबी कपड़ों को धीरे - धीरे धोये, किसी के कपड़ों को दूसरे के कपड़ों में न तो मिलाये और न पहनें । और जुलाहे से कितना कर लेवे ? यह कथन विषय विरूद्ध होने से असंगत तो है ही, साथ ही इन उपजातियों को मनु ने कहीं नहीं माना है । मनु के अनुसार चार ही वर्ण हैं और उनके कर्म निश्चित किये हैं । कपड़ा बुननादि शिल्पकर्म होने से वैश्य के कर्मों में आता है । अतः ये श्लोक परवत्र्तीकाल के द्योतक हैं जब जीविका के आधार ये उपजातियां प्रचलित हो गयीं, उस समय इन श्लोकों का किसी ने प्रक्षेप किया है । और विवादों के प्रकरण में कर - निर्धारण अथवा धोबी के विषय में नियम बनाने की बात सर्वथा असंगत है । अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।
 
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