Manu Smriti
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ऋत्विजं यस्त्यजेद्याज्यो याज्यं च र्त्विक्त्यजेद्यदि ।शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम् ।।8/388

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपने कर्म में दक्ष तथा दुष्कर्मों से पृथक् ऋत्विज और यजमान इन दोनों में से एक को परित्याग करें तो परित्याग करने वाले को सौ पण दण्ड देना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
जो यजमान काम करने में समर्थ और श्रेष्ठ पुरोहित को छोड़ दे और ऐसे ही यजमान को पुरोहित को छोड़ दे तो उन दोनों को सौ सौ पण दंड करना चाहिए ।
टिप्पणी :
अनुशीलन - ३८८ और ३८९ श्लोक विषयविरोध के अन्तर्गत आते हुए भी प्रक्षिप्त प्रतीत नहीं होते । इन्हें स्थानभ्रष्ट समझना चाहिए, क्यों कि १. इनका मनु की किसी मान्यता से विरोध नहीं है और न ये किसी अन्य आधार पर प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, २. इस अध्याय में इनमें सम्बन्धित प्रसंग भी है । प्रतीत होता है कि ये श्लोक चौथे विवाद ‘मिलकर उन्नति या व्यापार करना’ विषय से खण्डित होकर स्थानभ्रष्ट हुए हैं ।
 
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