Manu Smriti
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अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन् ।शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यात्सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् ।।8/385
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पति आदि से अरक्षित क्षत्रिय, वैश्य वा शूद्र की स्त्री से भोग करने वाले ब्राह्मण को पाँच पण दण्ड देना चाहिये। तथा चाण्डालादि की स्त्री से भोग करने वाले ब्राह्मण को सहस्र पण दण्ड देना चाहिये।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (८।३७३ - ३८५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - एक प्रसंग की समाप्ति के पश्चात् पुनः उसी प्रसंग को प्रारम्भ करना प्रसंग विरूद्ध है । ३५२ श्लोक से ‘स्त्रीसंग्रहण’ विवाद का सार्वजनिक दण्ड - व्यवस्था देकर ३५७ में ‘स्त्रीसंग्रहण’ की परिभाषा मनु ने कही है । और यह परिभाषा उस प्रसंग की समाप्ति की द्योतिका है । पुनः उस प्रसंग को प्रारम्भ करना असंगत है । और इस विषय में ३५८ - ३७० श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है । २. अन्तर्विरोध - (क) इन श्लोकों की दण्ड - व्यवस्था पक्षपातपूर्ण जन्मगत जाति के आधार पर बहुत विषमतापूर्ण कही है । यह व्यवस्था मनु की मान्यता के अनुरूप नहीं है । क्यों कि मनु की मान्यता में ८।३३५ - ३३८ श्लोकों के अनुसार उच्चवर्ण को हीनवर्ण की अपेक्षा अधिक दण्ड का विधान किया गया है । किन्तु यहां ३७९ - ३८१ श्लोकों में सर्वोच्चवर्ण ब्राह्मण की अपेक्षा दूसरे वर्णों के व्यक्तियों को अधिक दण्ड का विधान किया गया है । और ३७४ श्लोक में भी ऐसी ही पक्षपातपूर्ण व्यवस्था कही है । ऐसा पक्षपातपूर्ण विधान मनु - प्रोक्त (मौलिक) न होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में भी ८।३५८ - ३७० श्लोकों की समीक्षा (अन्तर्विरोध) द्रष्टव्य है । (ख) और इन श्लोकों में रक्षिता - अरक्षिता का भेद दिखाकर प्रक्षेपक ने बहु - विवाह का विधान किया है । किन्तु यह मनुसम्मत नहीं है । मनु ने एक पत्नी - व्रत की व्यवस्था दिखाते हुए स्पष्ट किया है कि पत्नी एक ही होनी चाहिये । इस विषय में ३।४-५, ५।१६७-१६८ श्लोक द्रष्टव्य हैं ।
 
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