Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पति आदि से सुरक्षित वैश्य की स्त्री से क्षत्रिय भोग करे व वैसी ही क्षत्राणी से वैश्य भोग करे तो जो दण्ड अरक्षित ब्राह्मणी से भोग करने वाले को कहा है वही दण्ड देना।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (८।३७३ - ३८५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - एक प्रसंग की समाप्ति के पश्चात् पुनः उसी प्रसंग को प्रारम्भ करना प्रसंग विरूद्ध है । ३५२ श्लोक से ‘स्त्रीसंग्रहण’ विवाद का सार्वजनिक दण्ड - व्यवस्था देकर ३५७ में ‘स्त्रीसंग्रहण’ की परिभाषा मनु ने कही है । और यह परिभाषा उस प्रसंग की समाप्ति की द्योतिका है । पुनः उस प्रसंग को प्रारम्भ करना असंगत है । और इस विषय में ३५८ - ३७० श्लोकों की समीक्षा द्रष्टव्य है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) इन श्लोकों की दण्ड - व्यवस्था पक्षपातपूर्ण जन्मगत जाति के आधार पर बहुत विषमतापूर्ण कही है । यह व्यवस्था मनु की मान्यता के अनुरूप नहीं है । क्यों कि मनु की मान्यता में ८।३३५ - ३३८ श्लोकों के अनुसार उच्चवर्ण को हीनवर्ण की अपेक्षा अधिक दण्ड का विधान किया गया है । किन्तु यहां ३७९ - ३८१ श्लोकों में सर्वोच्चवर्ण ब्राह्मण की अपेक्षा दूसरे वर्णों के व्यक्तियों को अधिक दण्ड का विधान किया गया है । और ३७४ श्लोक में भी ऐसी ही पक्षपातपूर्ण व्यवस्था कही है । ऐसा पक्षपातपूर्ण विधान मनु - प्रोक्त (मौलिक) न होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में भी ८।३५८ - ३७० श्लोकों की समीक्षा (अन्तर्विरोध) द्रष्टव्य है ।
(ख) और इन श्लोकों में रक्षिता - अरक्षिता का भेद दिखाकर प्रक्षेपक ने बहु - विवाह का विधान किया है । किन्तु यह मनुसम्मत नहीं है । मनु ने एक पत्नी - व्रत की व्यवस्था दिखाते हुए स्पष्ट किया है कि पत्नी एक ही होनी चाहिये । इस विषय में ३।४-५, ५।१६७-१६८ श्लोक द्रष्टव्य हैं ।