Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (८।३५८ - ३७०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग विरोध - ३५२ श्लोक में ‘स्त्रीसंग्रहण’ के दोषी को दण्ड की व्यवस्था करके ३५७ श्लोक में ‘स्त्रीसंग्रहण - दोष’ की परिभाषा दी है । इस प्रकार परिभाषा का देना उस प्रसंग की समाप्ति का सूचक है । उसके बाद वैकल्पिक विशेष विधानों का कथन तो प्रासंगिक हो सकता है, परन्तु पुनः उसी प्रसंग का कथन करना संगत नहीं है ।
२. अन्तर्विरोध - (क) ये सभी श्लोक मनु - प्रोक्त विधानों के विरूद्ध हैं । मनु ने सभी वर्णों के लिये पक्षपातरहित एवं समभाव से दंड का विधान किया है । इस विषय में ७।२, १६; ८।३४६, ९।३०७, ३११ श्लोक द्रष्टव्य हैं । और मनु ने जो समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति समाज में होते हैं, उनके लिये अपराधों का दंड दूसरों की अपेक्षा अधिक विधान किया है । एतदर्थ ८।३३५ से ३३८ श्लोक द्रष्टव्य हैं । परन्तु इन श्लोकों में उच्च - वर्ण वालों की अपेक्षा निम्न - वर्ण वालों को अधिक दंड देने की व्यवस्था पक्षपातपूर्ण है । और ३५९वें श्लोक में तो ब्राह्मण से भिन्न वर्ण वालों को व्यभिचार करने पर प्राणान्त दंड का विधान किया है, किन्तु ब्राह्मण के लिये नहीं । अतः यह दुराग्रहपूर्ण एवं पक्षपातपूर्ण दण्ड की व्यवस्था मनु - प्रोक्त नहीं है ।
(ख) और ३५८ श्लोक में विहित बातें अनावश्यक हैं, क्यों कि ये सभी बात ३५७ श्लोक के अन्तर्गत ही आ जाती हैं ।
(ग) और ३६२ श्लोक से ध्वनित हो रहा है कि पत्नी से जीविका के लिये वेश्यावृत्ति करने में कोई दंड नहीं दिया जाये । यह दासीप्रथा मनु की व्यवस्थाओं से विरूद्ध है । मनु परस्त्री - संभोग को (८।३५२ में) दंडनीय मानते हैं ।
(घ) और ३६४ - ३६५ श्लोकों में कही बातें ८।३५२ से विरूद्ध हैं । कन्या सकामा या अकामा हो, मनु के मत में सभी व्यभिचारिणी हैं और वे दण्डनीय हैं ।
(ड) और ३६६वें श्लोक में कही बातें ३।५१-५४ श्लोकों से विरूद्ध हैं । क्यों कि इसमें कन्या को धन देकर देने का विधान लिखा है । और शूद्र को ‘जधन्य’ लिखा है । जब कि मनु की मान्यता में कही भी ऐसा घृणाभाव नहीं है । और यदि व्यभिचार दोष के कारण शूद्र को वध का दंड है तो ब्राह्मणादि के लिये क्यों नहीं ? इस प्रकार पक्षपातपूर्ण तथा विरूद्ध बातें मनु - प्रोक्त नहीं हो सकतीं ।