Manu Smriti
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नैष चारणदारेषु विधिर्नात्मोपजीविषु ।सज्जयन्ति हि ते नारीर्निगूढाश्चारयन्ति च ।।8/362
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नट तथा चारण ( गाने बजाने वाले) की स्त्री तथा जो पुरुष स्त्री के दुराचरण द्वारा ही निर्वाह करते हैं उन स्त्रियों के हेतु उपरोक्त नीति का नियम नहीं है। क्योंकि लोग स्वयं ही अपनी स्त्रियों को गुप्त रीति से सब स्थानों पर भेजते हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये तेरह (८।३५८ - ३७०) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग विरोध - ३५२ श्लोक में ‘स्त्रीसंग्रहण’ के दोषी को दण्ड की व्यवस्था करके ३५७ श्लोक में ‘स्त्रीसंग्रहण - दोष’ की परिभाषा दी है । इस प्रकार परिभाषा का देना उस प्रसंग की समाप्ति का सूचक है । उसके बाद वैकल्पिक विशेष विधानों का कथन तो प्रासंगिक हो सकता है, परन्तु पुनः उसी प्रसंग का कथन करना संगत नहीं है । २. अन्तर्विरोध - (क) ये सभी श्लोक मनु - प्रोक्त विधानों के विरूद्ध हैं । मनु ने सभी वर्णों के लिये पक्षपातरहित एवं समभाव से दंड का विधान किया है । इस विषय में ७।२, १६; ८।३४६, ९।३०७, ३११ श्लोक द्रष्टव्य हैं । और मनु ने जो समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति समाज में होते हैं, उनके लिये अपराधों का दंड दूसरों की अपेक्षा अधिक विधान किया है । एतदर्थ ८।३३५ से ३३८ श्लोक द्रष्टव्य हैं । परन्तु इन श्लोकों में उच्च - वर्ण वालों की अपेक्षा निम्न - वर्ण वालों को अधिक दंड देने की व्यवस्था पक्षपातपूर्ण है । और ३५९वें श्लोक में तो ब्राह्मण से भिन्न वर्ण वालों को व्यभिचार करने पर प्राणान्त दंड का विधान किया है, किन्तु ब्राह्मण के लिये नहीं । अतः यह दुराग्रहपूर्ण एवं पक्षपातपूर्ण दण्ड की व्यवस्था मनु - प्रोक्त नहीं है । (ख) और ३५८ श्लोक में विहित बातें अनावश्यक हैं, क्यों कि ये सभी बात ३५७ श्लोक के अन्तर्गत ही आ जाती हैं । (ग) और ३६२ श्लोक से ध्वनित हो रहा है कि पत्नी से जीविका के लिये वेश्यावृत्ति करने में कोई दंड नहीं दिया जाये । यह दासीप्रथा मनु की व्यवस्थाओं से विरूद्ध है । मनु परस्त्री - संभोग को (८।३५२ में) दंडनीय मानते हैं । (घ) और ३६४ - ३६५ श्लोकों में कही बातें ८।३५२ से विरूद्ध हैं । कन्या सकामा या अकामा हो, मनु के मत में सभी व्यभिचारिणी हैं और वे दण्डनीय हैं । (ड) और ३६६वें श्लोक में कही बातें ३।५१-५४ श्लोकों से विरूद्ध हैं । क्यों कि इसमें कन्या को धन देकर देने का विधान लिखा है । और शूद्र को ‘जधन्य’ लिखा है । जब कि मनु की मान्यता में कही भी ऐसा घृणाभाव नहीं है । और यदि व्यभिचार दोष के कारण शूद्र को वध का दंड है तो ब्राह्मणादि के लिये क्यों नहीं ? इस प्रकार पक्षपातपूर्ण तथा विरूद्ध बातें मनु - प्रोक्त नहीं हो सकतीं ।
 
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