Manu Smriti
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परस्त्रियं योऽभिवदेत्तीर्थेऽरण्ये वनेऽपि वा ।नदीनां वापि संभेदे स संग्रहणं आप्नुयात् ।।8/356
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जल में जाने, मार्ग तथा घास फूल युक्त तथा मनुष्यों से विलग पर जो गाँव के बाहर हो, वन, तथा नदी संगम इन स्थानों में परस्त्री से वार्तालाप व परामर्श करें तो संप्रहण का दण्ड पाने योग्य हैं।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।३५६वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है - १. अन्तर्विरोध - ३५४ - ३५५ श्लोकों में यह स्पष्ट कहा है कि स्त्रियों से एकान्त में बातचीत करने पर कौन दोषी होता है और कौन नहीं । किन्तु इस श्लोक में ‘संग्रहण’ दोष का दोषी कौन होता, कौन नहीं ? यह कुछ भी स्पष्ट नहीं है । क्या पराई स्त्री से बोलना भी अपराध है ? और जो बात पहले स्पष्ट रूप से कह दी, फिर उसको अधूरे रूप में कहना उचित भी नहीं है । और यह भी नहीं कहा जा सकता कि श्लोक में एकान्त स्थानों का परिगणन किया गया है । क्यों कि एकान्त - स्थान इनसे भिन्न भी हो सकते हैं । अतः यह श्लोक मनु - प्रोक्त नहीं है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो पराई स्त्री को तीर्थ, जंगल, वन या नदी संगम पर छेड़े वह संग्रहण दोष का भागी हो।
 
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