Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
संसार में स्त्रियों के व्यभिचार से वर्ण शंकर उत्पन्न होते हैं और इस वर्ण शंकर से मूल नाशक अधर्म उत्पन्न होता है जिससे सृष्टि का नाश होता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
यह (८।३५३ वां) श्लोक निम्नलिखित कारण से प्रक्षिप्त है -
१. अन्तर्विरोध - (क) इस श्लोक में कही बात मनु - सम्मत नहीं है । क्यों कि पूर्व श्लोक में सामान्य रूप से (सभी वर्णों के लिये) व्यभिचार में प्रवृत्त अपराधियों के लिये दंड का विधान किया है । और इस श्लोक में व्यभिचार के कारण वर्ण संकर संतान का पैदा होना माना है । ‘वर्णसंकर’ का अभिप्राय है कि दो विभिन्न वर्णों के स्त्री - पुरूषों के सम्पर्क से सनातन का उत्पन्न होना । किन्तु यह अधूरा कथन ही है । क्यों कि यह आवश्यक नहीं है कि व्यभिचार भिन्न - भिन्न वर्णों के स्त्री - पुरूषों में ही हो । एक वर्ण के स्त्री - पुरूषों में भी सम्भव है । अतः सभी को ‘वर्ण - संकर’ नहीं कह सकते । क्या मनु भिन्न - भिन्न वर्णों के व्यभिचार को ही रोकना चाहते हैं, एक वर्ण वालों का नहीं ? अतः इस श्लोक की वर्ण - संकर की बात अपूर्ण है और पूर्व श्लोक की सामान्य बात ही ठीक है ।
(ख) और इस श्लोक में ‘वर्ण - संकर’ को धर्म को समूल नष्ट करने वाला माना है । जिससे यह ध्वनित होता है कि जो वर्णसंकर - सन्तान है, वह वर्ण - संकर ही रहता है और धर्माचरण करने पर भी वर्णों में दीक्षित नहीं हो सकता । यह व्यवस्था मनु - सम्मत नहीं है । मनु तो कर्मणा वर्ण - व्यवस्था मानते हैं, जन्म से नहीं । इस विषय में १।९२ - १०१, ४।२४५, २।१६८, ९।२२ - २४, १०।६५ श्लोकों की समीक्षा भी द्रष्टव्य है ।