Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जूठा किसी को न दें, सन्धि समय (दिन रात के मध्य के समय) भोजन न करें, बहुत भोजन न करें, झूँठे मुँह कहीं न जायें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
न कस्यचित् + उच्छिष्टं दद्यात् न किसी को अपना झूठा पदार्थ दे च और तथा एव न अन्तरा अद्यात् उसी प्रकार न किसी भोजन के बीच आप खावे न चैव अति - अशनं कुर्यात् न अधिक भोजन करे च और न उच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत् न भोजन किये पश्चात् हाथ मुख धोये बिना कहीं इधर - उधर जाये । (स० प्र० दशम समु०)
टिप्पणी :
‘‘(प्रश्न) एक साथ खाने में कुछ दोष है वा नहीं ?’’
(उत्तर) दोष है । क्यों कि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती । जैसे कुष्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का रूधिर बिगड़ जाता है । वैसे दूसरे के साथ खाने में भी कुछ बिगाड़ ही होता है; सुधार नहीं ।
(प्रश्न) ‘‘गुरोरूच्छिष्टभोजनम्’’ इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
(उत्तर) इसका यह अर्थ है कि गुरू के भोजन किये पश्चात् जो पृथक् अन्न शुद्ध स्थित है उसका भोजन करना अर्थात् गुरू को प्रथम भोजन कराके शिष्य को भोजन करना चाहिये ।
(प्रश्न) जो उच्छिष्ट मात्र का निषेध है तो मक्खियों का उच्छिष्ट सहत, बछड़े का उच्छिष्ट दूध और एक ग्रास खाने के पश्चात् अपना भी उच्छिष्ट होता है; पुनः उनको भी न खाना चाहिये ।
(उत्तर) सहत कथन मात्र ही उच्छिष्ट होता है परन्तु वह बहुत ही औषधियों का सार ग्राह्य; बछड़ा अपनी माँ के बाहर का दूध पीता है भीतर के दूध को नहीं पी सकता इसलिये उच्छिष्ट नहीं परन्तु बछड़े के पिये पश्चात् जल से उसकी माँ का स्तन धोकर शुद्ध पात्र में दोहना चाहिये । और अपना उच्छिष्ट अपने को विकारकारक नहीं होता । देखो! स्वभाव से यह सिद्ध है कि किसी का उच्छिष्ट का कोई भी न खाये । जैसे अपने मुख, नाक, आँख, उपस्थ और गुह्येन्द्रियों के मल मूत्रादि के स्पर्श में घृणा नहीं होती वैसे किसी दूसरे के मलमूत्र के स्पर्श में होती है । इससे यह सिद्ध होता है कि यह व्यवहार सृष्टिक्रम से विपरीत नहीं है । इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि किसी का उच्छिष्ट अर्थात् झूठा न खाये ।
(प्रश्न) भला स्त्री - पुरूष भी परस्पर उच्छिष्ट न खावें ?
(उत्तर) नहीं क्यों कि उनके भी शरीरों का स्वभाव भिन्न - भिन्न है ।
(स० प्र० दशमसमुल्लास)
टिप्पणी :
२।६ - ७ (२।३१ - ३२) श्लोकों की कुल्लूकभट्टादि की व्याख्या में यह स्पष्ट नहीं होता कि इन श्लोकों के अर्थ में क्या अन्तर हैं ? क्या इन श्लोकों में परस्पर - विरोध है अथवा कोई विशेष कथन किया है ? इन की व्याख्या के अनुसार - चारों वर्णों के क्रमशः मंगलयुक्त, बलयुक्त, धनयुक्त और निन्दायुक्त नाम रखने का विधान है और द्वितीय श्लोकार्थ में - वर्णों के क्रमशः शर्मायुक्त, रक्षायुक्त, पुष्टि - युक्त और दासयुक्त नाम रखने का कथन है । इन अर्थों में निम्न दोष हैं - (क) इन दोनों श्लोकों में भिन्न - भिन्न विधान क्यों है ? क्या यह वैकल्पिक विधान है ? (ख) प्राचीन आर्य ऋषि - मुनियों, तथा राजाओं के नामों में इस विधान का प्रचलन क्यों नहीं हुआ ? स्वयं मनु के नाम में भी इस विधान का अभाव है । (ग) ब्राह्मण का शर्मायुक्त नाम माना गया है , किन्तु क्षत्रियादि के नाम श्लोकों के अनुसार रक्षायुक्त, पुष्टियुक्त और प्रेष्ययुक्त क्यों नहीं ? या तो श्लोकपठित शब्दों का ही चारों वर्णों के नामों के साथ विधान होना चाहिये अथवा चारों के भाव मानकर इनके अर्थ वाले दूसरे शब्दों का भी विधान होना चाहिये । (घ) और सभी टीकाकारों ने ‘शर्मवत्’ शब्द का ‘शर्मा’ शब्द वाला अर्थ किया है, प्रथम तो श्लोक के दूसरे वर्णों के लिये प्रयुक्त शब्दों से इस अर्थ का विरोध है । और यदि ‘शर्मवत्’ शब्द का यह अर्थ है तो २।८ (२।३३) श्लोक में स्त्रियों के नाम के लिये ‘अभिधानवत्’ शब्द पठित है । क्या यहाँ यह अर्थ करना उचित है कि ‘शर्मवत्’ की भांति ‘अभिप्राय’ शब्दयुक्त नाम रखा जाये ? अतः ‘शर्मा’ नाम वाला अर्थ मनु के अभिप्राय से भी विरूद्ध है । (ड) और सभी टीकाकारों ने २।६ (२।३१) श्लोक के ‘‘जुगुप्सित’’ शब्द का ‘निन्दायुक्त’ अर्थ किया है । यह अर्थ मनु के आशय से सर्वथा विरूद्ध है । मनु ने सर्वत्र शूद्र को द्विजों का सेवाकार्य दिया है, अतः उसका पालन तथा रक्षण द्विजों के आश्रय से होता है । इसलिये इस पद में विद्यमान (गुपू रक्षणे धातु के स्वार्थ में सन्) धातु के अर्थानुसार पालन या रक्षण भावों को द्योतित करने वाला शूद्र का नाम होना चाहिये । यद्यपि वत्र्तमान संस्कृत में ‘जुगुप्सितम्’ पद का निन्दा अर्थ में व्यवहार देखने में आता है, इस अर्थ को देख कर इन टीकाकारों की व्याख्या सत्य प्रतीत होती है । किन्तु मनु के समय में निन्दा अर्थ प्रसिद्ध नहीं था । यह संकुचित अर्थ बहुत ही अर्वाचीन है । क्यों कि यदि शूद्र के कार्य तथा नाम निन्दायुक्त या घृणित होते, तो मनु शूद्र के कर्मों को भी ‘धर्म’ शब्द से न कहते । मनु जी ने चारों वर्णों के कर्मों को ‘एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वण्र्यस्य कीत्र्तितः’ (मनु० १०।१३१) ‘धर्म’ शब्द से न कहते । और शूद्र के कर्म को (१।९२) में प्रभु द्वारा उपदिष्ट न कहते । और (१।२) में ऋषि - मुनि चारों वर्णों के धर्मों की जिज्ञासा न करके तीन वर्णों की जिज्ञासा प्रकट करते । मनु के लेख के अनुसार जो मनुष्य तीनों ब्राह्मणादि वर्णों के कर्मों को करने में असमर्थ हो, वह शूद्र एक जाति होने से द्विज कहलाने का अधिकारी नहीं है । परन्तु उसके प्रति घृणाभावादि का कहीं भी उल्लेख नहीं है ।
दोनों श्लोकों की संगति - वास्तव में एक ही लेखक के दोनों श्लोकों में विरोध नहीं हो सकता । भ्रान्तिपूर्ण व्याख्या से ही भ्रान्ति की उतपत्ति होती है । इन श्लोकों में वर्णानुसार व्यक्तियों के गुणों तथा नाम रखने का विधान किया गया है । जो व्यक्ति ब्राह्मणवर्ण में दीक्षित होना चाहता है, उस में ऐसे गुण होने चाहिये कि जो मंगल्यम् - प्राणिमात्र की भलाई के लिये हों । क्यों कि यदि ज्ञान का केन्द्र ही अमंगलभावों से प्रेरित होगा, तो सर्वाधिक हानि की संभावना रहती है । और उसका नाम ‘शर्मवत्’ परोपकारादि सब को सुख देने वाले भावों का सूचक होना चाहिये । ब्राह्मण ज्ञान का केन्द्र होने तथा उपदेष्टा होने से ‘शर्म’ सुख के भावों वाला होना चाहिये । और जो व्यक्ति क्षत्रियवर्ण में दीक्षित होना चाहे, उसमें बलान्वितम् - बल पराक्रम वाले गुण होने चाहिये और उसका नामकरण भी इस प्रकार के गुणों को द्योतित करने वाले रक्षासमन्वितम् - रक्षणात्मक भावों को बताने वाला होना चाहिये । केवल प्रचलित ‘वर्मा’ शब्दयुक्त ही नहीं, प्रत्युत अरिंदम, धनंज्जय, धृतराष्ट्रादि रखने चाहिये । और जो व्यक्ति वैश्य वर्ण में दीक्षित होना चाहे, उसमें धनयुक्तम् - ‘धिनेतीति धनम्’ जो सब वर्णों को तृप्त करने वाले गुण रखता हो, ऐसे धनार्जन करने के गुण होने चाहिये, उसका नामकरण पुष्टिसंयुक्तम् - धनसमृद्धि के भावों का द्योतक होना चाहिये । जैसे - धनगुप्त, अर्थपति, वसुगुप्तादि, केवल प्रचलित ‘गुप्त’ शब्द युक्त नहीं । और जो जिसमें इन तीनों द्विजों के गुणों का अभाव है, वह शूद्र है, अतः उसमें जुगुप्सितम - इन वर्णों की रक्षा सेवादि के द्वारा करने के गुण होने चाहिये और उसका नामकरण प्रेष्यसंयुतम् - प्रपूर्वक इष् धातु का प्रयोग आज्ञा करने या प्रेरणा करने में आता है, अतः आज्ञाकारी या प्रेरणा से काम करने के भावों को द्योतित करने वाला हो । जैसे - देवदास, महीदासादि ।
इस प्रकार प्रथम श्लोक में वर्णों के गुणों का वर्णन किया है, और दूसरे श्लोक में कर्मानुसार नामकरण का संकेत किया है । जिससे मनु का आशय बहुत ही स्पष्ट है कि मनु जी गुणों के द्योतक भावों को ही नामों में चाहते हैं, किसी शब्द विशेष को नहीं । और वह भाव नाम में ही स्पष्ट होना चाहिये । वत्र्तमान में जो शर्मा, वर्मा आदि लिखने की परम्परा प्रचलित हुई है, यह जन्ममूलक वर्ण - व्यवस्था प्रचलन के बाद की है । प्राचीन नामों में यह परम्परा नहीं मिलती ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ब्रह्मचारी न किसी को अपना जूठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे। न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात् हाथ मुख धोये बिना कहीं इधर उधर जावे।१