Manu Smriti
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योऽदत्तादायिनो हस्ताल्लिप्सेत ब्राह्मणो धनम् ।याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः ।।8/340
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो ब्राह्मण चोर को पढ़ाकर तथा उसके द्वारा यज्ञ कराके द्र्र्रव्य लेने की इच्छा रखता है। वह ब्राह्मण में समान है।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो ब्राह्मण अनुचित धन कमाने वाले के हाथ से यज्ञ की दक्षिणा या पढ़ाने की दक्षिणा के रूप में भी धन लेने की इच्छा करता है वह भी उसी के समान चोर है।
 
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