Manu Smriti
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वानस्पत्यं मूलफलं दार्वग्न्यर्थं तथैव च ।तृणं च गोभ्यो ग्रासार्थं अस्तेयं मनुरब्रवीत् ।।8/339
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो वृक्ष आदि अरक्षक दशा में हैं उस वृक्ष का मूल, फल, फूल, यज्ञ समिधा (हवन के लिए लकड़ी) तथा गऊ के हेतु तृण आदि इन सब को लेवें अदण्डनीय है क्योंकि मनुजी के विचार से यह अधर्म नहीं है।
 
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