यस्त्वेतान्युपक्ल्प्तानि द्रव्याणि स्तेनयेन्नरः ।तं आद्यं दण्डयेद्राजा यश्चाग्निं चोरयेद्गृहात् ।।8/333 यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
जो मनुष्य दूसरे की वस्तु चुरावे, यज्ञशाला से वा अग्निहोत्र की अग्नि तथा गृह की अग्नि चुरावें तो वह प्रथम साहस दण्ड पावे और अग्नि के द्वितीय वार स्थित करने में जो कुछ व्यय हो वह अग्नि के स्वामी को देवे।