Manu Smriti
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राजा स्तेनेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता ।आचक्षाणेन तत्स्तेयं एवंकर्मास्मि शाधि माम् ।।8/314

 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
ब्राह्मण का सोना चुराने वाला खुले शिर (नंगे मूँड) राजा के सन्मुख दौड़ कर जावे और अपराध को स्वीकार करे।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(यदि चोर चोरी करने के बाद स्वयं उस अपराध को अनुभव कर लेता है तो उसके प्रायश्चित्त और उससे मुक्ति के लिए) चोर को चाहिए कि वह बाल खोलकर दौड़ता हुआ उसने जो चोरी की है उसको कहता हुआ ‘कि मैंने अमुक चोरी की है, अमुक चोरी की है,’ आदि राजा के पास जाना चाहिए, और कहे कि ‘मैंने ऐसा चोरी का काम किया है’ ‘मैं अपराधी हूँ’ मुझे सजा दीजिए ।
टिप्पणी :
अनुशीलन - प्रतीत होता है कि यह उस समय की स्वयं प्रायश्चित्त करने की परम्परा थी । चोरी चोरी करने के पश्चात् यदि स्वयं यह अनुभव करता है कि मैंने यह बुरा कार्य किया है और पकड़े जाने से पूर्व स्वंय ही उसका प्रायश्चित्त करना चाहता है तो उसका यह तरीका है । सार्वजनिक रूप से अपने आपको चोर कहने पर और अपने आपको चोर के रूप में सबके तथा राजा के सामने प्रदर्शित करने पर बहुत बड़ा प्रायश्चित्त हो जाता है । स्वयं इस प्रकार प्रायश्चित्त करने वाले व्यक्ति द्वारा पुनः अपराध करने की संभावना नहीं रहती । और लोग भी यह मान लेते हैं कि जब इसने स्वयं ही सार्वजनिक रूप से अपने आपको चोर घोषित करके अपने अपराध को स्वीकार कर लिया है, और प्रायश्चित्त कर रहा तो इसे और दण्ड देने की आवश्यकता नहीं । इस श्लोक से तथा ८।३१६ से यह ध्वनित होता है कि स्वयं इस प्रकार प्रायश्चित्त करने वाले व्यक्ति को राजा को क्षमा कर देना चाहिए । इस सबके बाद वह व्यक्ति दोषमुक्त मान लिया जाता है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
यदि कोई चोर केश खोलकर और कन्धे पर मूसल, या खैर की लाठी, या दोनों ओर से तीक्ष्ण धारवाली वर्छी, या लोहे का डण्डा रखे हुए१ दौड़ता हुआ राजा के पास पहुँचे और उस चोरी को बताता हुआ कहे कि राजन्! मैंने इस प्रकार यह चौरकर्म किया है, मैं दण्ड का भागी हूं, मुझे दण्ड दीजिए।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
चोर को चाहिये कि बाल खोलकर दौड़ता हुआ राजा के पास जाकर इककार करे-मैंने अमुक चोरी की है मैं अपराधी हूँ, मुझको दण्ड दीजिये। राजा ऐसे पुरुष को छोड़ दे, क्षमा कर दे।
 
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