Manu Smriti
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यः क्षिप्तो मर्षयत्यार्तैस्तेन स्वर्गे महीयते ।यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरकं तेन गच्छति ।।8/313
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
दुखी पुरुषों (आतुरों) के कठोर आक्षेपों की सुनकर जो राजा सहन करता है वह स्वर्ग में जाता है और जो प्रभुता के मद से सहन नहीं करता है वह नरक में जाता है अर्थात् उस आचरा से दुर्गति पाता है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (८।३१२ - ३१३) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - यहां प्रसंग पूर्वापर श्लोकों में चोरों अथवा अपराधियों को दण्ड देने का है । परन्तु इन दोनों श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातें कहीं हैं । इन श्लोकों में बाल, वृद्ध और रोगादि से पीडि़त जनों को क्षमा करने से स्वर्ग प्राप्ति और क्षमा न करने से नरक की प्राप्ति लिखी है । और विवाद में वादी - प्रतिवादी के आक्षेपपूर्ण वचनों को क्षमा करनादि बातें प्रसंग के विरूद्ध हैं । २. अन्तर्विरोध - मनु ने राजा को अग्नि, सूर्यादि भांति तेजस्वी कहा है । और राजा का कार्य दुष्टों व शत्रुओं को पराजित करना है । इसलिये क्षमा करना राजा का भूषण नहीं, दोष है । क्यों कि अपराधियों को क्षमा करने से लड़ने लगें, तो अराजकता तो दूर नहीं हो सकती । अतः इस प्रकार की व्यवस्था मनु - सम्मत कदापि नहीं हो सकती ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो दुखी जनों के आक्षेपों को क्षमा करता है वह स्वर्ग पाता है और जो अपने को शक्तिशाली समझकर नहीं सहन करता वह नरक को जाता है।
 
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