Manu Smriti
 HOME >> SHLOK >> COMMENTARY
क्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् ।बालवृद्धातुराणां च कुर्वता हितं आत्मनः ।।8/312
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
अपना हित चाहने वाला राजा वादी, प्रतिवादी, बालक, वृद्ध, आतुर (दुखी) पुरुषों के वचन को जो वे कष्ट समय आक्षेप करते हुए भला बुरा कहें उसे सहन कर क्षमा करें, क्योंकि -
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (८।३१२ - ३१३) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - १. प्रसंग - विरोध - यहां प्रसंग पूर्वापर श्लोकों में चोरों अथवा अपराधियों को दण्ड देने का है । परन्तु इन दोनों श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बातें कहीं हैं । इन श्लोकों में बाल, वृद्ध और रोगादि से पीडि़त जनों को क्षमा करने से स्वर्ग प्राप्ति और क्षमा न करने से नरक की प्राप्ति लिखी है । और विवाद में वादी - प्रतिवादी के आक्षेपपूर्ण वचनों को क्षमा करनादि बातें प्रसंग के विरूद्ध हैं । २. अन्तर्विरोध - मनु ने राजा को अग्नि, सूर्यादि भांति तेजस्वी कहा है । और राजा का कार्य दुष्टों व शत्रुओं को पराजित करना है । इसलिये क्षमा करना राजा का भूषण नहीं, दोष है । क्यों कि अपराधियों को क्षमा करने से लड़ने लगें, तो अराजकता तो दूर नहीं हो सकती । अतः इस प्रकार की व्यवस्था मनु - सम्मत कदापि नहीं हो सकती ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो राजा अपना हित चाहता है उसको चाहिये कि मुकदमे वाले तथा बालक, बुड्ढे या बीमार कुछ आक्षेप करें तो इनको सुन ले और क्षमा करें।
 
NAME  * :
Comments  * :
POST YOUR COMMENTS