Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये दोनों (८।३०४ - ३०५) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
१. प्रसंग - विरोध - ३०१ श्लोक में कहा है कि इससे आगे चोरों के दण्ड का विधान करेंगे । किन्तु इन श्लोकों में इस प्रसंग से भिन्न बात ही कही है । अर्थात् राजा प्रजा के धर्म - अधर्म के छठे भाग का हिस्सेदार होता है । और प्रजा के व्यक्ति जो भी पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना और उपासनादि शुभ - कर्म करते हैं, राजा को उसका छठा भाग मिलता है । प्रस्तुत प्रसंग से इसकी कोई संगति न होने से ये श्लोक असंगत ही हैं । और ३०३ श्लोक में जिस राष्ट्ररूपी यज्ञ की (चोरादि से) रक्षा करना राजा का कत्र्तव्य माना है, उस से संबद्ध बात ही ३०६ श्लोक में कही है । इन दोनों श्लोकों ने उस क्रम को भंग किया है, अतः ये दोनों अप्रासंगिक हैं ।
२. अन्तर्विरोध - मनु ने ४।२४० में अपनी मान्यता स्पष्ट लिखी है कि कत्र्ता (जीवात्मा) शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं भोगता है । किन्तु यहां उससे विपरीत बात कही है, कि प्रजा के शुभाशुभ कर्मों का जो फल होता है उसका छठा भाग राजा को मिलता है । यह मनुसम्मत मान्यता नहीं है । राजा जो रक्षादि अपने धर्म का पालन करता है, उसका फल राजा को मिलेगा, परन्तु यज्ञादि कोई दूसरा करे और उसमें फल का भागीदार राजा हो जाये, अथवा पढ़े कोई दूसरा, और उसकी विद्या का छठा भाग राजा को मिल जाये, यह एक मिथ्या मान्यता है । मनु ने ऐसा कहीं नहीं माना है ।
३. शैली - विरोध - मनु के प्रवचन का आधार युक्तियुक्त होता है । मनु मिथ्या अथव काल्पनिक बात नहीं करते । परन्तु प्रजा के धर्माधर्म के छठे भाग का राजा हिस्सेदार होता है, यह कथन युक्तियुक्त न होने तथा निराधार होने से मनुप्रोक्त नहीं है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
जो कोई कुछ पढ़ता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है, जो पूजा करता है उस सबका छठा भाग राजा का होता है क्योंकि राजा रक्षा करता है।