Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर की ओर मुँह कर भोजन करने से क्रमानुसार आयु, यज्ञ, लक्ष्मी, सत्यता की वृद्धि होती है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
२।२७ (२।५२) यह श्लोक निम्न कारण से प्रक्षिप्त है -
(क) यहाँ द्विजवर्णों की उपनयन - विधि प्रकरण (२।२६ श्लोक) में पूर्वाभिमुख होकर एक सामान्य विधि का उल्लेख किया गया है और इस श्लोक में चारों दिशाओं में मुख करके फलनिर्देशपूर्वक कथन किया है । अतः यह पूर्व विधान से विरूद्ध है ।
(ख) इस श्लोक में दिशाओं के अनुसार भोजन करने के जो फल आयु, यश, श्री, ऋत - सत्य दिखाये हैं, उनका दिशाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है । मनु ने ‘आचाराल्लभते ह्यायुः’ आदि कथन करके आयु - वृद्धि के कारणों का निर्देश किया है । बिना कारण - कार्य भाव के फल कथन की भावना पौराणिक युग की है, मनु की नहीं । अतः इसमें शैली - विरूद्ध कथन है ।
(ग) यदि दिशाओं को आयु आदि का कारण माना जाये, तो यह निर्धन से निर्धन, अत्यन्त रोगी तथा अतिशय पाप निरत पुरूष को भी सुविधा प्राप्त है, फिर तो अल्पायु वाला, निर्धन एवं पापी कोई नहीं होना चाहिये । अतः यह मान्यता प्रत्यक्ष के भी विरूद्ध है ।
(घ) प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी दिशा में ही मुख करके भोजन करता है, क्यों कि कैसे भी बैठा जाये, दिशाओं को नहीं छोड़ा जा सकता । यदि आयु आदि इतने सुगम उपाय से प्राप्त हो जायें, तो कोई भी इनकी प्राप्ति के साधनों को न अपनाये । अतः यह धर्म विमुख तथा निष्क्रिय बनाने वाली मान्यता है ।