Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
निश्चय होकर भिक्षा (भीख) माँगकर गुरुजी के सम्मुख (पास) रखे। तत्पश्चात् उनकी आज्ञा पर आचमन करके पवित्र होकर पूर्वाभिमुख (पूर्व की ओर मुँह करके) बैठ कर भोजन करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
. तत् भैक्षं तु समाहृत्य उस भिक्षा को आवश्यकतानुसार लाकर यावत् + अन्नम् जितनी भी वह भोज्य सामग्री हो उसे अमायया निष्कपट भाव से गुरबे निवेद्य गुरू को निवेदित करके शुचिः स्वच्छ होकर प्राड्मुखः पूर्व की ओर मुख करके आचम्य आचमन करके अश्नीयात् खाये ।
टिप्पणी :
‘‘जितनी भिक्षा मिले वह आचार्य के आगे धर देनी, तत्पश्चात् आचार्य उसमें से कुछ थोड़ा सा अन्न लेके वह सब भिक्षा बालक को दे देवे और वह बालक उस भिक्षा को अपने भोजन के लिए रख छोड़े ।’’
(सं० वि० वेदा० सं०)
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
ब्रह्मचारी निष्कपटभाव से उस सम्पूर्ण भिक्षा को गुरु के आगे धर कर, और गुरु को जितना अन्न आवश्यक हो प्रदान कर, आचमन करके और शुद्ध करके पूर्वामिुख बैठ के अवशिष्ट अन्न का भक्षण करे।